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देखकर बोली--तुम यहाँ धुएँ में कहाँ आ गये बेटा, जाकर बाहर बैठों, यह चटाई उठा ले जाओ।

अमर ने चूल्हे के पास जाकर कहा--तू हट जा, मैं आग जलाये देता हूँ।

सलोनी ने स्नेहमय कठोरता से कहा--तू बाहर क्यों नहीं जाता। मरदों का तो इस तरह रसोई में घुसना अच्छा नहीं लगता।

बुढ़िया डर रही थी, कि कहीं अमरकान्त दो प्रकार के आटे न देख ले। शायद वह उसे दिखलाना चाहती थी कि मैं भी गेहूँ का आटा खाती हूँ। अमर वह रहस्य क्या जाने। बोला--अच्छा तो आटा निकाल दे, मैं गूँध दूँ।

सलोनी ने हैरान होकर कहा--तू कैसा लड़का है भाई ! बाहर जाकर क्यों नहीं बैठता।

उसे वह दिन याद आये, जब उसके अपने बच्चे उसे अम्मा-अम्मा कहकर घेर लेते थे और वह उन्हें डाँटती थी। उस उजड़े हुए घर में आज एक दिया जल रहा था; पर कल फिर वही अंधेरा हो जायगा वही सन्नाटा। इस युवक की ओर क्यों उसकी इतनी ममता हो रही थी ? कौन जाने कहाँ से आया है, कहाँ जायगा; पर यह जानते हुए भी अमर का सरल बालकों का-सा निष्कपट व्यवहार, उसका बार-बार घर में आना और हरएक काम करने को तैयार हो जाना उसकी सूखी मातृ-भावना को सींचता हुआ-सा जान पड़ता था, मानो अपने ही सिधारे हुए बालक की प्रतिध्वनि कहीं दूर से उसके कानों में आ रही है।

एक बालक लालटेन लिये कन्धे पर एक दरी रखे आया और दोनों चीजें उसके पास रखकर बैठ गया। अमर ने पूछा--दरी कहाँ से लाये ?

'काकी ने तुम्हारे लिये भेजी है। वही काकी, जो अभी आई थीं।'

अमर ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा--अच्छा, तुम उनके भतीजे हो? तुम्हारी काकी कभी तुम्हें मारती तो नहीं !

बालक सिर हिलाकर बोला--कभी नहीं। वह तो हमें खेलाती हैं। दुरजन को नहीं खेलातीं, वह बड़ा बदमाश है।

अमर ने मुसकराकर पूछा--कहाँ पढ़ने जाते हो?

बालक ने नीचे का ओठ सिकोड़कर कहा--कहाँ जायँ, हमें कौन पढ़ाये। मदरसे में कोई जाने तो देता नहीं। एक दिन दादा हम दोनों को

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कर्मभूमि