एक दिन अमरकान्त ने पठानिन को कचहरी में देखा। सकीना भी चादर ओढ़े उसके साथ थी।
अमरकान्त ने पूछा--बैठने को कुछ लाऊँ माताजी? आज आपसे भी न रहा गया।
पठानिन बोली--मैं तो रोज आती हूँ बेटा, तुमने मुझे न देखा होगा। यह लड़की मानती ही नहीं।
अमरकान्त को रुमाल की यादगार आ गयी, और वह अनुरोध भी याद आया, जो बुढ़िया ने उससे किया था; पर इस हलचल में वह कालेज तक तो जा न पाता था, उन बातों का कहाँ से खयाल रखता।
बुढ़िया ने पूछा--मुक़दमे में क्या होगा बेटा। वह औरत छूटेगी कि सजा हो जायगी?
सकीना उसके और समीप आ गयी।
अमर ने कहा--कुछ कह नहीं सकता माता। छूटने की कोई उम्मीद नहीं मालूम होती; मगर हम प्रीवी कौंसिल तक जायँगे।
पठानिन बोली--ऐसे मामले में भी जज सजा कर दे, तो अंधेर है।
अमरकान्त ने आवेश में कहा--उसे सजा मिले चाहे रिहाई, पर उसने दिखा दिया कि भारत की दरिद्र औरतें भी कैसे अपनी आबरू की रक्षा कर सकती हैं!
सकीना ने पूछा तो अमर से, पर दादी की तरफ मुँह करके--हम दर्शन कर सकेंगे अम्मा?
अमर ने तत्परता से कहा--हाँ, दर्शन करने में क्या है। चलो पठानिन, मैं तुम्हें अपने घर की स्त्रियों के साथ बैठा दूं। वहाँ तुम उन लोगों से बातें भी कर सकोगी।
पठानिन बोली--हाँ बेटा, पहले ही दिन से यह लड़की मेरी जान खा रही है। तुमसे मुलाकात ही न होती थी कि पूछूं। कुछ रुमाल बनाये थे। उसके दो रुपये मिले। वह दोनों रुपये तभी से संच कर रखे हुए है। चन्दा देगी। न हो तो तुम्हीं ले लो बेटा, औरतों को दो रुपये देते हुए शर्म आयेगी।
अमरकान्त इन गरीबों का त्याग देखकर भीतर-ही-भीतर लज्जित हो गया। वह अपने को कुछ समझने लगा था। जिधर निकल जाता, जनता