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कलम, तलवार और त्याग
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रहो और गुरुजी के पास बहुत देर तक न ठहरा करो। यह सुनकर शिष्यों के होश उड़ गये और आपस में काना-फुसी होने लगी। मैं उस समय कहीं गया हुआ था। लौटा तो अपने गुरुभाइयों को अति भयभीत पाया! कारण मालूम होते ही मैं सीधे गुरुदेव के कमरे में चला गया। वह दयाली जिसमें उनके गले से निकाला हुआ मवद रखा हुआ था, उठा ली, और सब शिष्यों के सामने बड़े इतमिनान से पी गया और बोली, 'देखो,मृत्यु क्योकर मेरे पास आती है ?"

स्वामीजी सामाजिक सुधारों के पक्के समर्थक थे पर उसकी वर्तमान गति से सहमत न थे। उस समय समाज-सुधार के जो यत्न किये जाते थे, वह प्रायः उच्च और शिक्षित वर्ग से ही संबन्ध रखते थे। परदे की रस्म, विधवा-विवाह, जाति-वन्धन- यही इस समय की सबसे बड़ी सामाजिक समस्याएँ हैं, जिनमें सुधार होना अत्यावश्यक है, और यह सभी शिक्षित वर्ग से संबन्ध रखती हैं। स्वामीजी का आदर्श बहुत ऊँचा था---अर्थात निम्र श्रेणीवालों को ऊपर उठानी, उन्हें शिक्षा देना और अपना भाई बनाना। यह लोग हिन्दू जाति की जड़ है और शिक्षित-वर्ग उसकी शाखाएँ। केवल डालियों को सींचने से पेड़ पुष्ट नहीं हो सकता। उसे हरा-भरा बनाना हो तो जड़ को सोचना होगा। इसके सिवा इस विषय में आप कठोर शब्दों के व्यवहार को अति अनुचित समझते थे, जिनका फल केवल यही होता है कि जिनका सुधार करना है वही लोग चिढ़कर ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार हो जाते हैं। और सुधार का मतलब केवल यही रह जाता है कि निरर्थक विवादों और दिल दुखानेवाली आलोचनाओं से पन्ने-के-पन्ने काले किये जायें। इसी से तो समाज- सुधार का यत्न आरंभ हुए सौ साल से ऊपर हो चुका और अभी तक कोई नतीजा न निकला।

स्वामीजी ने सुधार के लिए तीन शर्ते रखी हैं। पहली यह कि देश और जाति का प्रेम उसका स्वभाव बन गया हो, हृदय उदार हो