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चित्रकला

उसी प्रकार से ज्ञान होना चाहिए जैसे कि निर्माण के लिए आवश्यक शस्त्रों तथा उसके प्रयोग के ढंग का ज्ञान आवश्यक है। इसी प्रकार से किसी कलाकृति में सर्वप्रथम सामग्रियों और शस्त्रों के प्रयोग में ज्ञानोपरांत प्रकाश और छाया के सिद्धान्तों के परिज्ञान के साथ वस्तुओं के बाह्य तत्त्व की अनुभूति और अंत में भाव और तदनुरूप भावाभिव्यक्ति करने की शक्ति होना परमावश्यक है।

छाया और प्रकाश तथा वस्तु के बाह्य तत्त्व और प्रयोग के द्वारा हमें कल्पना को प्रकट करने का माध्यम मिल जाता है और हम अपने मस्तिष्क को सक्रिय बना लेते हैं। यह एक निश्चित बात है कि गम्भीर से गम्भीर भाव क्रियाशील मस्तिष्क में ही उत्पन्न हो सकते हैं।

बहुत से लोग प्रायः यह प्रश्न पूछा करते हैं कि ये विचित्र चित्र क्यों बनाये जाते हैं? जो कुछ हम देखते हैं उसे ही क्यों न चित्रित किया जाय? हम एक कल्पित पेड़ या पशु की क्यों रचना करें, जब कि प्रकृति के असंख्य वृक्षों या पशुओं की अनुकृति बनायी जा सकती है? इन प्रश्नों का उत्तर सीधा है। इस प्रकार के कार्य कल्पना को विकसित तथा उत्तेजित करने के लिए किये जाते हैं। इस प्रकार की रचना में हम संलग्न होकर आविष्कार करने, निर्माण करने तथा अपनी प्रतिभा और कुशलता का प्रयोग करने तथा अपने मस्तिष्क को कार्योन्मुख करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। इस प्रकार नूतन तथा विचित्र वस्तुएँ उत्पन्न हो सकती हैं जिनमें मौलिकता सदा सन्निहित रहेगी, जो कलाकार की निजी रचना या सृष्टि होगी। एकमात्र यही मार्ग हमारी रचनात्मक प्रणाली के लिए संभव है, भले ही प्रारंभिक अवस्था में यह कार्यप्रणाली विशेष उपयोगी न जान पड़े, चित्रकार के रूप और आकार विशेष आकर्षक न प्रतीत हों, किन्तु अभ्यास द्वारा वह रूपों तथा आकारों को हृदय में उतार कर हाथों में कस लेगा और उनसे अपूर्व आनन्द-स्रोत की सुर-सरिता बहा देगा।