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कला और प्राधुनिक प्रवृत्तियाँ

के इतने रूप बहुत कम देखने को मिलते हैं । भारत की सम्पूर्ण मुगल कालीन कला का रूप एक ही ढांचे में ढला प्रतीत होता है । कहीं-कहीं थोड़ा अन्तर भी दृष्टिगोचर होता है,परन्तु उसको हम विभिन्न रूप नहीं कह सकते । मुगलकालीन चित्र देखते ही यह ज्ञात हो जाता है कि वह किस समय का होगा। इसी प्रकार बौद्ध, जैन, ब्राह्मण सभी कलाएँ एक साँचे में ढली प्रतीत होती हैं। यह बात आधुनिक कला के बारे में सत्य नहीं ठहरायी जा सकती। बीसवीं शताब्दी के अट्ठावन वर्षों में कला के अनेक रूप बने और बनते जा रहे हैं । भारत के अन्य प्राचीन कालों में शायद भारतीयों का सम्बन्ध संसार की और सभ्यताओं से इतना नहीं था जितना इस सदी में धीरे-धीरे होता जा रहा है, इसलिए भारतीय संस्कृति और कला दोनों पर उनका प्रभाव पूर्ण रूप से पड़ रहा है । प्राचीन काल में सुविधाओं की कमी के कारण यह सम्पर्क इतना नहीं था और उस समय की कलापर संसार के अन्य देशों का प्रभाव नहीं मिल पाता। यदि आज ऐसी सुविधा है और एक देश की सभ्यता और कला पर अन्य देश का प्रभाव पड़े तो यह अनुचित नहीं है, बल्कि आवश्यक है । सभ्यता का विकास आदान-प्रदान पर आधारित है। चित्रकला के क्षेत्र में या और किसी भी कला अथवा विज्ञान में प्रायः प्रत्येक सभ्य देश में एक ही प्रकार की धाराएँ चल रही हैं । यही कारण है कि चित्रकला के क्षेत्र में नित्य नयी-नयी धाराएँ आ रही हैं ।

इन सभी रूपों का तथा प्राचीन चित्रकला के रूपों का भली-भाँति विश्लेषण करने पर हमें तीन धाराएँ मुख्य जान पड़ती हैं, आलंकारिक रूप, विषय-प्रधान रूप तथा सूक्ष्म रूप । या हम उन्हें तीन प्रकार के चित्र कह सकते हैं-आलंकारिक चित्र, विषय-प्रधान चित्र और सूक्ष्म चित्र । इन तीनों प्रकार के चित्रों में किसका स्थान सबसे ऊँचा है, यह निर्धारित करना कठिन है, क्योंकि यह तीनों प्रकार के चित्र हर देश और काल में पाये जाते हैं। कभी किसी का प्रचार अधिक रहा, कभी किसी का । आधुनिक यूरोप में सूक्ष्म चित्र अधिक प्रचलित है । आधुनिक भारत में विषय-प्रधान चित्र का अभी तक प्रचार रहा है, परन्तु दृष्टिकोण सूक्ष्म होता जा रहा है । आलंकारिक चित्र इस समय कम बन रहे हैं।

आलंकारिक प्रवृत्ति

जिस समय देश धन-धान्य से सम्पन्न और आनन्दमय होता है, उस समय वहाँ की कला तथा जीवन दोनों में अलंकार का महत्त्व सबसे अधिक होता है । अलंकार का प्राण लय, छन्द-गति, सन्तुलन तथा ताल होता है । जिस समय नदी जल-राशि से परिपूर्ण होकर छन्द-गति से कल-कल करती हुई प्रवाहित होती है, दर्शक अवाक रह जाता है और उसी लय के प्रवाह के साथ स्वयं भी अपने को बहता हुआ पाता है । उससे प्रानन्द मिलता है,