पुस्तक, दूसरे में वीणा, तीसरे में कमल का पुष्प और चौथे हाथ में माला अंकित है। यहाँ ये चारों हाथ सरस्वती की चार शक्तियों के द्योतक हैं। श्वेत वर्ण उनके ज्ञान का द्योतक है। इसी प्रकार विष्णु के चारों हाथ और श्याम रंग उनकी शक्तियों और प्रवृत्ति के द्योतक हैं। इस तरह प्रकृति के ही रूपों द्वारा चित्र में चित्रकार कोई भाव भर सकता है । इस प्रकार के चित्र भी विषयप्रधान चित्र कहलाते हैं। विषयप्रधान चित्र संसार के चित्रकारों का सर्वाधिक प्रिय विषय रहा है । भारतीय विषयप्रधान चित्रों में प्रायः कोई न कोई भाव अवश्य मिलता है, परन्तु पाश्चात्य देशों में अधिकतर वस्तुओं के प्राकृतिक रूप को ही विभिन्न ढंगों से बनाया गया है । अजन्ता, राजपूत, मुगल, जैन, तथा पहाड़ी कलाएँ सभी विषय-प्रधान चित्रों की श्रेणी में आती हैं। ऋतुओं के चित्र, रसों के चित्र, राग-रागिनियों के चित्र, इत्यादि भी विषयप्रधान चित्र के अन्तर्गत हैं।
विषयप्रधान चित्र बनाने से पहले चित्रकार यह भली-भांति सोच लेता है कि वह किसका चित्र, किसका प्रतिरूप बनाने जा रहा है । वह जानता है कि उसे वृक्ष बनाना है, मनुष्य का रूप बनाना है, या ईश्वर का रूप बनाना है। परमात्मा तो सूक्ष्म है। उसका चित्र बनाना तो सूक्ष्म चित्र बनाना कहा जा सकता है परन्तु यह भी विषयप्रधान चित्र है और इसमें भी परमात्मा पहले आ जाता है, फिर उसका चित्र । परमात्मा या देवी- देवताओं के रूपों को भी मनुष्य का-सा रूप दे दिया गया है जिसमें उनके चित्र बन सकें। जहाँ भी चित्र बनाने से पहले चित्रकार के मन में कोई भाव या वस्तु पाती है, उसी भाव या वस्तु का प्रतिरूप चित्र होता है और चित्र विषयप्रधान हो जाता है ।
इस प्रकार विचार करने से तो यह कहा जा सकता है कि चित्र विषयप्रधान ही हो सकता है और उसमें कोई दूसरा प्रकार नहीं हो सकता, क्योंकि जितने भी चित्र बनते हैं उनमें चित्रकार किसी न किसी वस्तु या भाव का रूप अवश्य बनाता है । इसीलिए आदिकाल से बीसवीं शताब्दी तक अधिकतर चित्र विषय प्रधान ही बने और आज भी बन रहे हैं। हम जो देखते हैं, जो सोचते हैं, उसीका चित्र बनाते हैं । इसके अतिरिक्त हम अन्य क्या कर सकते हैं ? परन्तु आधुनिक चित्रकार इस प्रकार के चित्र बनाते-बनाते एक ऐसी स्थिति में पहुँचा है जहाँ उसे एक दूसरे ही प्रकार का भाव उत्पन्न हुआ है-जिसे नव- निर्माण कहते हैं । इसी का परिणाम सूक्ष्म कला है ।
सूक्ष्म प्रवृत्ति
निर्माण और पुननिर्माण में अन्तर है । पुननिर्माण उस स्थिति को कहते हैं जहाँ हम उन वस्तुओं का निर्माण करते हैं जो पहले भी निर्माण की जा चुकी हैं, अर्थात् जिनका