सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ.djvu/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतीकात्मक प्रवृत्ति

मनुष्य अपने को व्यक्त करना चाहता है । यह उसकी जन्मजात प्रवृत्ति है । दूसरी प्रवृत्ति, जो मनुष्य में प्रारम्भ से ही है, अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए अनेक वस्तुओं का निर्माण करने की है । ये दोनों प्रवृत्तियाँ आपस में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं । जब मनुष्य को किसी की आवश्यकता होती है तो वह सर्वप्रथम उस वस्तु की कल्पना करता है । कल्पना करना भी अपनी इच्छा को या इच्छा की वस्तु को, चाहे मन में या किसी से व्यक्त करना ही है । वह अपने से व्यक्त करता है कि उसे किस वस्तु की आव- श्यकता है । इतने से ही यदि काम चल जाता और कल्पना करने से ही वस्तु मिल जाती तो मनुष्य के लिए अपने को दूसरे से व्यक्त करने की आवश्यकता शायद न पड़ती । कल्पना करने पर मनुष्य चाहता है कि उसको साकार रूप में देखे । वह केवल इच्छा ही नहीं करता बल्कि इच्छित वस्तु को, अपनी कल्पना में आयी हुई वस्तु को प्राप्त करना चाहता है। मनुष्य यदि अकेले बिना किसी की सहायता के अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त कर लेता तो भी उसे अपने को दूसरों से व्यक्त करने की आवश्यकता न पड़ती। पर मनुष्य हार यहीं खाता है । वह देखता है कि वह अकेले अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त नहीं कर सकता। उसे दूसरे व्यक्तियों का भी सहयोग चाहिए । इसी आधार पर समाज का निर्माण हुअा। मनुष्य ने अपने को दूसरों से व्यक्त करना अरम्भ किया।

अपने को व्यक्त करने के लिए भी साधन की आवश्यकता हुई । मनुष्य इस बात की चेष्टा करने लगा। कल्पना की, इशारों से पहले उसने अपने को व्यक्त किया । इशारों के द्वारा जब मनुष्य अपने को व्यक्त करने लगा और उसमें सफलता मिली तो उसको लोगों ने याद करना और अनुकरण करना प्रारम्भ किया और एक-दूसरे पर निश्चित इशारों से प्रयोग होने लगा। प्रत्येक इच्छा धीरे-धीरे इशारों से प्रकट की जाने लगी। इशारों का एक विज्ञान बन गया । भाषा बन गयी । इस प्रकार, अपने को व्यक्त करने की चेष्टा में मनुष्य ने अनेक कलाओं का निर्माण किया ।