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पृष्ठ:कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ.djvu/१३९

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प्रादर्शवादी प्रवृत्ति

हम क्यों कार्य करते हैं। ऐसे व्यक्ति का कोई आदर्श नहीं होता और न उसका कोई लक्ष्य ही होता है । वह नदी के प्रवाह में उस तृण को भाँति है, जो जल की लहरों की चपेट के सहारे बहता जाता है । उसे इसका भी ज्ञान नहीं होता । यह तो हम उसके सम्बन्ध में टीका कर रहे हैं । हम जानवरों को बुद्धिहीन कहते हैं, परन्तु जानवर न यही जानता है कि वह बुद्धिहीन है, न उसे हमारी टीका की परवाह है । वह अपनी गति से चलता जाता है। इसी प्रकार बहुत से मनुष्य भी कार्य करते हैं। वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते न प्रयत्न ही करते हैं इसके लिए। ऐसे मनुष्य अधिकतर अपनी सहज प्रवृत्तियों की प्रेरणा से कार्य करते जाते हैं और इन कार्यों के कारण पर वे कभी विचार नहीं करते । केवल कार्य करते जाते हैं। ऐसे मनुष्य प्रयत्न और त्रुटि 'ट्रायल ऐण्ड एरर' के सहारे अपना सब कार्य कर लेते हैं। यह भी एक प्रकार का दर्शन है। इसमें कोई आदर्श नहीं होता, न कभी बनता है । जैसी समस्या उपस्थित होती है तुरन्त उसका हल निकाल लेते हैं, और आगे बढ़ते हैं । इस प्रकार की कार्य-प्रणाली में विश्वास करनेवाले भी बहुत से दार्शनिक है जो "प्रेगमेटिस्ट" कहलाते हैं। इस दर्शन का पाश्चात्य देशों में बहुत प्रचार हुआ है । पाश्चात्य दार्शनिक डिवी इसी का प्रचारक है । कुछ लोग इस दर्शन को समझ कर चेतन रूप में कार्य करते हैं, कुछ बिना इसे समझे स्वभावतः ऐसा करते हैं। इसीके अनुसार बहुत से चित्रकार भी कला का कार्य करते हैं, इन्हें हम आदर्शवादी कलाकार नहीं कह सकते।

आदर्शवाद का प्रचार सबसे अधिक पूर्वी देशों में हुआ जहाँ की संस्कृति और सभ्यता का इतिहास अति प्राचीन है। पाश्चात्य आधनिक देशों की सभ्यता तथा इतिहास इतना प्राचीन नहीं है, इसलिए यदि हम कहें कि उनका पूर्ण विकास भी अभी नहीं हो पाया है तो अतिशयोक्ति न होगी । ऐसी स्थिति में उस समाज के आगे उदाहरण कम होते हैं, और उसकी स्थिति अभी खोज की है, उनका भविष्य खोज पर आधारित है। इसलिए उन्हें अपनी सहज प्रवृत्तियों के सहारे ही चलना पड़ता है। ऐसे देश यथार्थवाद में अधिक विश्वास करते हैं। उनका आदर्श धीरे-धीरे बनता है। जैसे-जैसे उनकी प्रगति होगी, वैसे-वैसे उनका आदर्श निश्चित होगा। भारत एक अति प्राचीन देश होने के नाते यहाँ बहुत से आदर्श बन चुके हैं और यहाँ का व्यक्ति तथा समाज अधिकतर आदर्शवादी होता है । इसी प्रकार भारतवर्ष की कला भी अधिकतर आदर्शवादी रही है। भारत में विभिन्न दर्शनों का प्रचार हुआ और उसी के अनुसार विभिन्न चित्रकलाओं का प्रादुर्भाव हुआ ।

जब किसी देश, जाति या व्यक्ति का आदर्श निश्चित हो जाता है, तो उसका रास्ता अधिक सरल हो जाता है । आदर्श के अनुसार व्यक्ति अपना लक्ष्य निश्चित करता है, वहाँ