यथार्थवादी प्रवृत्ति
चित्रकला के इतिहास में बहुत से वाद आये, परन्तु किसी समय या किसी देश में ऐसी कोई चित्रकला-पद्धति नहीं प्रचलित हुई जो यथार्थवादी के नाम से सम्बोधित की गयी हो। फिर भी यथार्थवादी शब्द चित्रकला के क्षेत्र में जितना प्रचलित है, शायद ही कोई अन्य वाद हो। यूरोप में तो इस शब्द का प्रचार रहा ही, परन्तु भारतवर्ष में भी यह बहुत प्रचलित हुआ। आज भी साधारण जनता चित्रकला के क्षेत्र में आये यदि किसी वाद से भली-भाँति परिचित है, तो 'यथार्थवाद' से। आज तक अधिकतर लोग यथार्थवादी चित्र पसन्द करते हैं।
यथार्थवाद शब्द यूरोपीय दर्शन में तो अवश्य बहुत प्रचलित रहा, परन्तु कला के क्षेत्र में वहाँ भी ऐसी कोई कला-पद्धति नहीं है, जिसे यथार्थवादी कहा गया हो। यथार्थवादी दर्शन में इसका तात्पर्य उस ज्ञान से है जिसमें संसार की बाह्य यथार्थता की प्रधानता रही है। यूरोपीय साहित्य ने दर्शन से यह शब्द अपनाया और यथार्थवादी साहित्य का प्रचलन हुआ। यथार्थवादी साहित्यकार जीवन को उसके प्रति सांसारिक रूप में ही देखता है। वह इसमें अपनी बुद्धि या कल्पना से अधिक महत्त्व इन्द्रियजन्य ज्ञान को देता है। वह संसार को वैसा ही यथार्थ समझता है जैसा वह उसे अपने नेत्रों से देखता है। वह संसार के बाह्य रूप को ही सत्य मानता है। उसके परे उसे कुछ नहीं दिखाई देता। इस दृष्टिकोण से यदि हम चित्रकला में आयी पद्धतियों का निरीक्षण करें तो इसकी समता उस चित्रकला-पद्धति से की जा सकती है जिसमें चित्रकार प्रकृति की वस्तुओं को उनके यथार्थ बाह्य रूप में चित्रित करना अपना मुख्य उद्देश्य रखता था। उन्नीसवीं शताब्दी की यूरोपीय चित्रकला इस भावना से बहुत प्रभावित रही, यद्यपि इसके साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी काफी प्रादुर्भाव हो गया था, जिसके कारण वहाँ की चित्रकला केवल यथार्थवादी न रही बल्कि वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित रही। ऐसी चित्रकला 'इम्प्रेश्निस्ट आर्ट' (आभासिक चित्रकला) के नाम से सम्बोधित की गयी। यदि हम यथार्थवादी चित्रकला का शुद्धतम रूप खोजना चाहें, तो वह हमें नीदरलैण्ड की कला में मिलता है और मुख्यतः रूबेन्स तथा पीटर ब्रूगल की चित्रकला में।