परन्तु प्रत्येक सभ्य भारतीय शिक्षित मानव पर यथार्थ की गहरी छाप पड़ी। आधुनिक समय में नित्य नये-नये चित्रकला के रूप आ रहे हैं। पुनः प्राचीन भारतीय चित्रकला परम्परा को संचित करने का तथा जीवित करने का अधिक प्रयल हो रहा है, परन्तु भारतीय शिक्षित जन इस आवाज को नहीं सुन पाते, वे आज भी चित्रकार से यथार्थ चित्र की माँग करते हैं। यद्यपि आज का कलाकार इस मांग पर तनिक भी ध्यान नहीं देना चाहता। आज का चित्रकार स्वतंत्र है, उसके स्वतंत्र विचार हैं, वह जनता की माँग में विश्वास नहीं करता बल्कि स्वयं उसे कुछ निधि प्रदान करना चाहता है, जो जनता की माँग तो नहीं है पर समय की, देश की पुकार अवश्य है।
आधुनिक समय में यथार्थवादी चित्रकला का संसार में कहीं भी प्रचार नहीं है, यूरोप में भी नहीं। भारतवर्ष में यह विचार आया अवश्य, परन्तु ऐसा कोई भी यथार्थवादी चित्रकार न हो सका, जिसकी तुलना कुशल यूरोपीय यथार्थवादी चित्रकार से हो सके। राजा रवि वर्मा से इस विचार का पदार्पण भारत में अवश्य हुआ, सारे कला विद्यालय इन्हीं विचारों के अनुसार शिक्षा भी देने लगे, परन्तु 'खोदा पहाड़ निकला चूहा' वाली लोकोक्ति चरितार्थ होती है। वैसे तो सभी प्रान्तों में यथार्थवादी चित्रकार रहे और हैं, पर उल्लेखनीय कठिनाई से दो-चार हैं। कलकत्ते के मजूमदार तथा अतुल बोस, बम्बई के श्री देवस्कर, यू० पी० के ललित मोहन सेन, पंजाब के ठाकुरदास, मद्रास के डी० पी० चौधरी का नाम यथार्थवादी चित्रकारों में लिया जाता है।