आभासात्मक प्रवत्ति
भारतवर्ष की प्राचीन चित्रकला में भी यथार्थवाद के उदाहरण मिलते हैं। पुराणों में तथा शास्त्रों में यथार्थवादी चित्रकला की पूर्णता के कुछ उदाहरण मिलते हैं। एक बार एक प्राचीन भारतीय राजा भयजीत ने एक मृतक बालक का चित्र बनाया जो बिलकुल उसी बालक की तरह था, केवल जीवन उसमें नहीं था। यह कार्य ब्रह्मा ने स्वयं किया और चित्र में बना बालक जीवित हो उठा। इसी प्रकार जब पाण्डवों ने अश्वमेध यज्ञ किया तो एक ऐसा राजभवन बनवाया जिसके फर्श पर इस प्रकार की चित्रकला हुई थी कि जहाँ समतल था वहाँ पानी मालूम पड़ता था और जहाँ पानी था वहाँ समतल। महाराज दुर्योधन स्वयं इस कला के शिकार हुए थे। इतने पूर्व हम न जायँ और केवल राजपूत तथा मुगल कला पर ही दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि चित्रकार प्राकृतिक अनुकरण में आनन्द लेते हैं। भारत में अंग्रेजी शासन के साथ-साथ अंग्रेजी कला का भी बहुत प्रभाव पड़ा। उन्नीसवीं शताब्दी की अंग्रेजी कला प्राकृतिक चित्रण के लिए विख्यात है। कान्सटेबुल, टर्नर इत्यादि कलाकारों ने इस प्राकृतिक चित्रकला को एक बहुत ही ऊँचे स्तर पर पहुँचा दिया। भारतवर्ष में फिर से कला का प्रचार आरम्भ हुआ और यहाँ के चित्रकारों ने इस अंग्रेजी चित्रकला का खूब स्वागत किया। राजा रविवर्मा ने इस प्रकार की चित्रकला-शैली की नींव डाली और यहाँ की गुलाम जनता ने उनका सत्कार भी खूब किया। इसके बाद कला के क्षेत्र में श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने पदार्पण किया और आधुनिक बंगाल-चित्रकला का जन्म हुआ।
बंगाल-चित्रकला अंग्रेजी चित्रकला से प्रभावित तो थी, परन्तु भारतीयता का आन्दोलन इस समय तक आरम्भ हो चुका था। कुछ दिनों तक बंगाल-चित्रकला में राजपूत, मुगल, अजन्ता की चित्रकला की धूम रही, परन्तु अभी भी भारत गुलाम था और भारतीय चित्रकार विलायत की सैर कर वापस आने लगे थे और साथ-साथ वे चित्रकला का एक नया रूप भी लाये जिन्हें वहाँ "इम्प्रेरिनस्ट पार्ट" (आभासिक-चित्रकला) कहा जाता था। यह वहाँ की यथार्थवादी चित्रकला का एक रूपान्तर मात्र है।
युरोप में उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकृति की नकल करने की चेष्टा होती रही। इसमें