पड़ता कि वह किस स्थान पर कौन सा रंग लगाये। यह कार्य भी अपने आप ही होता है। उधर उमंग की समाप्ति होते-होते वह काम रोक देता है। इधर चित्र तैयार हो गया। ऐसे चित्र देखने पर चित्रकार स्वयं आश्चर्य में पड़ जाता है कि उसने यह सब क्या बनाया और क्यों बनाया। इस प्रकार के चित्रों की प्रेरणा कहाँ से आयी, स्वयं चित्रकार भी यह नहीं सोच पाता।
ऐसे चित्रों में जो रूप होते हैं कभी-कभी उनमें एक दूसरे से अधिक सम्बद्ध भी नहीं होते, एक ही चित्र में बिलकुल भिन्न-भिन्न एक दूसरे से कोई सम्बन्ध न रखनेवाले रूप होते हैं। जैसे चित्रकार ने मनुष्य का मुख बनाते-बनाते, धीरे-धीरे ग्रीवा तक आते-आते एक चर्खा बना डाला, चर्खे का डोरा बनाते-बनाते एक कुर्सी बन गयी, जिसका पूरा रूप बन भी नहीं पाया था कि उसकी एक टांग ने चिड़िया का रूप धारण कर लिया, और चिड़िया का सिर मोटर का एक टायर बन गया। इस प्रकार चित्रकार अपने को एक प्रकार का रेडियो यंत्र बना लेता है। कहीं से आवाज हुई वह बोलने लगा। अर्थात् चित्रकार का हाथ एक मशीन की भाँति कार्य करता है, उसका मन या मस्तिष्क भी एक मशीन की भाँति कार्य करता है। मनोविज्ञान इस बात की पुष्टि करता है कि यदि हम अपने भावों को विवेक के साथ एकाग्र करना छोड़ दें तो उस मस्तिष्क पर चलचित्र की भाँति क्षण-क्षण पर विभिन्न रूप में तीव्र गति से विचार तथा रूप आते-जाते हैं। इस प्रकार यदि हम इन चित्रों की चलचित्रों से तुलना करें तो गलत न होगा। वैसे तो चलचित्रों में विवेक होता है, पर यहाँ तुलना केवल गति से की जा रही है। इस प्रकार के चित्रों में चित्रकार बड़ी सरलता से वर्तमान समाज, इसका विकृत रूप तथा अपने मन में उठी प्रतिक्रियाओं का सुन्दर चित्र बना पाता है। सचमुच ऐसे चित्रों का मूल्य आज के समाज में बहुत अधिक है जबकि मनुष्य बाहर से कुछ और तथा भीतर कुछ और है। चित्रकार अपने चित्रों के द्वारा भीतर और बाहर को एक कर देना चाहता है। यही है स्वप्निल चित्रकला का उद्देश्य।
इन चित्रों में रूप प्रतीकात्मक तथा लाक्षणिक होते हैं। ऐसे चित्रों का आनन्द इन प्रतीकों तथा लक्षणाओं को समझने पर ही मिल सकता है। इनका मनोवैज्ञानिक निरूपण आवश्यक है।