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अन्तर-राष्ट्रीय प्रवृत्ति

भारतवर्ष और यूरोपीय देशों में हजारों मील का अन्तर है। यूरोपवालों ने भारत पर आक्रमण किया। डेढ़-दो सौ वर्ष तक भारत परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा रहा। परतन्त्रता कला की मृत्यु है। इन डेढ़-दो सौ वर्षों के अन्दर भारत की आत्मा कुचली गयी। कला का ह्रास हुआ। इस समय में ही भारतीयों ने फिर एक बार स्वतन्त्र होने की चेष्टा की और सफलता भी मिली, परन्तु ऐसे समय में कला में विकास खोजना अनधिकार चेष्टा करना है। जिस समय यूरोप अपने विकास के पथ पर निरन्तर अग्रसर हो रहा था, उस समय भारत अपनी जंजीरों से मुक्ति पाने के लिए व्याकुल हो रहा था, तरस रहा था। इन डेढ़-दो सौ वर्षों में यूरोप विज्ञान की चरम सीमा पर आरूढ़ हुआ। भारत अज्ञान में भटकता रहा। विज्ञान के आधार पर यूरोप में मनोविज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ और भारतवासियों का मनोवैज्ञानिक पतन होता गया। यूरोप में ऐटम बम का आविष्कार हुआ, महायुद्ध हुआ और शोले भारत में गिरे। झुलस गया यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति। ये हैं हमारे उद्गार, यूरोप के प्रति और क्रोध आता है जब यूरोपीय विद्वान् भारत की तुलना अपने से करते हैं। अपने को हम क्या कोसें, शिथिल हुए, पिंजड़े से अभी-अभी निकले, पक्षी को।

इन डेढ़-दो सौ वर्षों में भारत में जो भी कला दिखाई पड़ती है, उसका कोई व्यवस्थित और परिमार्जित रूप नहीं मिलता। दो मुख्य धाराएँ आपस में होड़ लगाती हुई अवश्य दृष्टिगोचर होती हैं—वे हैं, परम्परागत कला तथा यूरोपीय यथार्थवादी कला। इन दोनों में यहाँ कशमकश रही है। अभी न तो यहाँ पूरी तरह से परम्परागत कला का विकास हुआ है, न यूरोपीय यथार्थवादी कला का। इस समय भारत की कला एक चौराहे पर है, और उलझन-सी साबित हो रही है। आज भी कहीं-कहीं पर कलाकार परम्परा के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। दूसरी और कुछ आधुनिक चित्रकार यूरोप के सम्पर्क में आकर आधुनिक यूरोप की नयी शैलियों के कुछ स्वतंत्र तथा मौलिक अध्ययन और खोज में लगे हैं। अभी कोई निश्चित, सुदृढ़, सुडौल मार्ग लक्षित नहीं हुआ है।