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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

प्रस्फुटन अत्यावश्यक है । ईश्वर में, जो प्रकृति का स्रष्टा माना जाता है, निर्माण का सहज ज्ञान बहुत बलवान् है । तभी तो क्षण-क्षण में उसकी सृष्टि अपना रूप बदलती रहती है और इसीलिए कहा गया है कि सृष्टि अगम है । इसीलिए ईश्वर एक महान्क लाकार माना गया है । अतः जिस चित्रकार में जितना ही अधिक रचनात्मक सहज ज्ञान होगा वह उतना ही उच्च कलाकार हो सकेगा ।

आधुनिक चित्रकला में चेतनकला का स्थान प्रमुख है । आधुनिक चित्रकार कल्पना में पूर्ण विश्वास रखता है । वह उसके सहारे नये रूपों का निर्माण करना चाहता है और वे नये रूप इतने नये हों जो प्रकृति में भी देखने को न मिल सकें । इसीलिए आधुनिक चित्रकला का रूप बहुत ही सूक्ष्म हो गया है ।

यूरोप में इस प्रकार की सूक्ष्म-कला का काफी प्रचार हो गया है । पिकासो, हेनरी मूर, मातिस, मेज़ान इत्यादि की कला सम्पूर्ण संसार में विख्यात हो चुकी है । भारत में भी बहुत से चित्रकार आगे आ रहे हैं, यामिनी राय, जार्ज कीट, पार० एन० देव और राचश इत्यादि । आधुनिक युग सूक्ष्म चित्रकला का युग है और इस सूक्ष्म चित्रकला की कुंजी मनोविज्ञान रहा है । चित्र में क्या बनाया गया है वह इतने महत्त्व का नहीं है, जितना यह समझना कि चित्र में जो कुछ बना है, वह चित्रकार ने किस मानसिक परिस्थिति में बनाया है । इस मानसिक परिस्थिति का ज्यों ही ज्ञान होता है, दर्शक को उस चित्र में आनन्द मिलने लगता है । इसके लिए दर्शक को रूप और रंग का मनोविज्ञान अवश्य जानना चाहिए, तभी वह आधुनिक मनोवैज्ञानिक सूक्ष्म-चित्रों का आनन्द ले सकता है ।

यहाँ हमारे लिए प्रकृति और कला का भेद समझना आवश्यक है । प्रकृति का रचयिता ईश्वर होता है, परन्तु कला मनुष्य की रचना को कहते हैं । कश्मीर की सुन्दर घाटियाँ, हिमालय का धवल-शिखर, आसाम के अद्भुत वन, अरब सागर का विस्तृत-तट, प्राची का सूर्य, तारों से जगमगाती रातें, चाँद का सलोना रूप यह सब कला नहीं है, परन्तु आगरे का ताजमहल ,भुवनेश्वर के भव्य मंदिर,अजंता की गुफाएँ, दिल्ली का किला, दमदम का पुल इत्यादि कलाएँ हैं और मनुष्य की कला के उदाहरण हैं ।

जिस प्रकार ईश्वर की प्रकृति का अन्त नहीं है, उसी प्रकार मनुष्य की कला का छोर नहीं । ईश्वर की प्रकृति कल्पना के परे है और यही कल्पना मनुष्य की कला की सीढ़ी है ।