पृष्ठ:कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ.djvu/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४
कला और माधुनिक प्रवृत्तियों
 


विज्ञान और मनोविज्ञान दोनों का लक्ष्य मानसिक विकास है । प्राचीन धर्म और दर्शन का भी लक्ष्य मनुष्य का बौद्धिक विकास था। अर्थात् सारे ज्ञान, विज्ञान, विद्याएँ मनुष्य के बौद्धिक विकास की योजना में निरन्तर लगी हुई है। इसी प्रकार कला का भी लक्ष्य मानसिक विकास है।

मानसिक विकास दो प्रकार का होता है । एक तो मनुष्य ज्ञान प्राप्त करना ही अपना लक्ष्य बना सकता है और दूसरा प्राप्त-ज्ञान के द्वारा कार्य करता है। इन दोनों में अंतर है। इसको भी हम दूसरे प्रकार से कह सकते हैं, कोरा ज्ञान तथा उपयोगी ज्ञान । वैसे तो प्रत्येक मनुष्य को ज्ञान की आवश्यकता है, केवल कोरे ज्ञान की नहीं बल्कि उपयोगी ज्ञान की भी, परन्तु मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुसार दोनों में से किसी एक की ओर अधिक झुकता है । दार्शनिक का ज्ञान कोरे ज्ञान की कोटि में आता है, परन्तु वैज्ञानिक तथा कलाकार का ज्ञान उपयोगी ज्ञान होता है । दार्शनिक केवल जिज्ञासु की भांति ज्ञान का उपार्जन किये जाता है, उसको इसी में आनन्द आता है, अर्थात् उसका ज्ञान अन्तर्मुखी हो जाता है, परन्तु वैज्ञानिक और कलाकार का ज्ञान अन्तर्मुखी नहीं होने पाता और अगर हो जाय तो वह वैज्ञानिक-निर्माण या कला की रचना कर ही नहीं सकता। वह ज्ञान को भीतर नहीं खोजता बल्कि प्रकृति में खोजता है। बाह्य वस्तुओं के द्वारा ही उसे ज्ञान होता जाता है और यह ज्ञान उसे कार्य करने पर ही होता है । वैज्ञानिक अन्वेपण करके ज्ञान प्राप्त करता है और उस प्राप्त-ज्ञान के आधार पर पुनः अन्वेषण करता है । यही विधि चलती रहती है । कलाकार का भी यही तरीका है । दार्शनिक एक स्थान पर चुपचाप बैठकर अपने मस्तिष्क में हवाई किले बनाता जाता है और नये-नये ज्ञान की प्राप्ति करता जाता है, परन्तु कलाकार या वैज्ञानिक के ज्ञान का आधार उसके सामने रखी वस्तुएँ हैं। दार्शनिक का लक्ष्य ज्ञान एकत्र करना है और वैज्ञानिक तथा कलाकार कार्य के द्वारा ज्ञान और ज्ञान के द्वारा कार्य की प्राप्ति करते हैं।

साधारण प्रगतिशील मनुष्य के लिए यह दूसरे प्रकार का मानसिक विकास अधिक हितकर है।

कार्य दो प्रकार के होते हैं -एक तो स्वाभाविक कार्य और दूसरा मानसिक । स्वाभाविक कार्य में कला नहीं आती। स्वाभाविक कार्य में मनुष्य को बुद्धि की आवश्यकता नहीं पड़ती, जैसे रोना, चिल्लाना, हँसना, हाथ-पैर हिलाना इत्यादि । परन्तु कला के कार्य में बुद्धि का प्रयोग होता है । जब हम कोई वस्तु बनाना चाहते हैं तभी हमें बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है, बिना बुद्धि के रचना का कार्य हो ही नहीं सकता।