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प्रकाशकीय

भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी की प्रतिष्ठा के पश्चात यद्यपि इस देश के प्रत्येक जन पर उसकी समृद्धि का दायित्व है, किन्तु इससे हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों के विशेष उत्तरदायित्व में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। हमें संविधान में निर्धारित अवधि के भीतर हिन्दी को न केवल सभी राजकार्यों में व्यवहृत करना है, वरन् उसे उच्चतम शिक्षा के माध्यम के लिए भी परिपुष्ट बनाना है। इसके लिए अपेक्षा है कि हिन्दी में वाङ्मय के सभी अवयवों पर प्रामाणिक ग्रन्थ हों और यदि कोई व्यक्ति केवल हिन्दी के माध्यम से ज्ञानार्जन करना चाहे तो उसका मार्ग अवरुद्ध न रह जाय।

इसी भावना से प्रेरित होकर उत्तर प्रदेश शासन ने हिन्दी समिति के तत्त्वावधान में हिन्दी वाङ्मय के सभी अङ्गों पर ३०० ग्रन्थों के प्रणयन एवं प्रकाशन के लिए पंचवर्षीय योजना परिचालित की हैं। यह प्रसन्नता का विषय है कि देश के बहुश्रुत विद्वानों का सहयोग इस सत्प्रयास में समिति को प्राप्त हुआ है जिसके परिणाम स्वरूप थोड़े समय में ही विभिन्न विषयों पर सोलह ग्रन्थ प्रकाशित किये जा चुके है। देश की हिन्दी-भाषी जनता एवं पत्र-पत्रिकाओं से हमें इस दिशा में पर्याप्त प्रोत्साहन मिला है जिससे हमें अपने इस उपक्रम की सफलता पर विश्वास होने लगा है।

प्रस्तुत ग्रन्थ हिन्दी-समिति-ग्रन्थ-माला का १७ वां पुष्प है। हिन्दी में चित्रकला पर ग्रंथों की बहुलता नहीं है और जो ग्रन्थ प्रकाशित भी हुए हैं उनमें प्राचीन भारतीय चित्र-कला के संबंध में ही विचार किया गया है। भारत में चित्र-कला में जो आधुनिकतम प्रयोग चल रहे हैं उनकी पृष्ठभूमि में कैसी भावना, कौन-सा उद्देश्य है इसका उद्घाटन अभी तक नहीं के बराबर हुआ है। इस पुस्तक के लेखक स्वयं आधुनिक चित्रकला के