कलह और मनमुटाव, एक-दूसरे को क्षति पहुँचाने की भावना, एक को दबाकर स्वयं ऊपर बढ़ने का प्रयत्न, लालच, झुठाई, अमानुषिक व्यवहार इतने बढ़ गये हैं कि उनका प्रतिरोध कठिन हो गया है। देश के नेता, सुधारक, उच्च पदाधिकारी, इस भयानक बाढ़ को अपने भाषणों, लेखों इत्यादि से दूर करने के लिए कटिबद्ध हैं, परन्तु इस कार्य में जो सफलता मिल रही है वह भी हमारे सामने है।
समाज की यह बर्बरता लेखों और भाषणों से इस तरह दूर नहीं की जा सकती। जब तक समाज एक सुन्दर समाज नहीं बन जाता, जब तक समाज का एक-एक व्यक्ति समाज को सुन्दर बनाने में योग नहीं देगा, जब तक समाज के प्रत्येक प्राणी को सौन्दर्य प्राप्ति का मार्ग नहीं मालूम हो जायगा, जब तक उसको प्रकृति से प्रेम न हो जायगा, तब तक, न उसके विचार ही बदलेंगे, न वह अपनी हरकत से बाज आयेगा। यदि सचमुच हमें अपने समाज को सुन्दर, सुगठित, सुदृढ़ बनाना है, तो हमें ध्वंसात्मक वृत्तियों का दमन कर रचनात्मक वृत्तियों का स्वागत करना सीखना होगा और सिखाना होगा। यह ध्रुव सत्य है, कि अगर एक बार मनुष्य को रचना या सृष्टि का आनन्द मिल गया तो फिर वह स्वप्न में भी ध्वंसात्मक वृत्ति की भावना नहीं ला सकता। उसका सम्पूर्ण समय, उसकी पूरी शक्ति, उसका तन, मन, धन, सभी रचना के कार्य में लगेगा और फिर यह असम्भव है कि वह निर्माण के बदले ध्वंस करने की सोचे। जिस काम में उसने अपने को निछावर कर दिया है उसे नष्ट-भ्रष्ट होते वह कैसे देख सकता है?
निर्माण की इस प्रवृत्ति को हमें अपने में फिर से जगाना होगा। निर्माण के ही आधार पर हम अपने समाज तथा जीवन को पुनः सुन्दर बना सकते हैं। आज आवश्यकता है कि भारत का बच्चा-बच्चा, युवक-युवतियाँ, वृद्धवृद्धाएँ, रचना के कार्य में संलग्न हो जायँ। विद्यालयों में, गृह-उद्योगों पर, रचना के कार्य पर, अधिक ध्यान देना इस समय हमारा मुख्य प्रयोजन होना चाहिए। रचना का ही दूसरा नाम कला है।
प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख, जो संसार में आया है, सबसे जटिल समस्या अपने चारों ओर के वातावरण से हाथापाई करना रही है। यह भी बिलकुल सत्य है कि इस वातावरण का सामना अकेले करना उसके लिए कठिन है। उसका जीवन इतना छोटा है कि अगर वह केवल अपने अनुभव से ही इस संसार को समझना चाहे और उसी के अनुसार बिना दूसरों की सहायता के जीवित रहना चाहे, तो उसका सारा समय समाप्त हो जायगा और इस अपरिमित संसार के एक छोर का भी उसे पता न लग सकेगा। ऐसी स्थिति में उसके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह दूसरों के अनुभव का भी सहारा ले और