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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

रेखाओं से चित्र में दिशा-निर्देशन किया जाता है। कभी धीरे-धीरे, कभी वेग से चलकर, ऊपर से नीचे की ओर भारी होकर या अनायास इधर-उधर दौड़कर रेखाएँ विभिन्न प्रकार के मनोभावों को इंगित कर सकती है, विभिन्न प्रकार के विचारों, भावों, मनोभावों तथा मनोवेगों को उत्पन्न करती हैं। हलकी रेखा अस्पष्ट होकर दूरी का बोध कराती है। गहरी स्पष्ट रेखा निकटता की द्योतिका है। गहरी रेखा से शक्ति तथा दृढ़ता का आभास होता है। अधिक गहरी रेखाएँ आत्मविश्वास तथा दुराग्रह की धोतिका भी हैं। रेखामों में मोटापन, क्षीणता एवं उतार-चढ़ाव लाकर कोमलता, सुकुमारता तथा नीरसता का ज्ञान कराया जा सकता है। जब रेखाओं में प्रगति होती है तब ये मनोभावों को ऊपर ले जाती है और वीरता या शूरता का बोध कराती हैं। जब रेखाएँ क्षीण होकर चलती हैं, तो सन्देह, अनिश्चितता तथा दौर्बल्य का भास होता है। रेखाएँ मन के विभिन्न भावों को बड़ी सरलता से व्यक्त कर सकती हैं। रेखा से ही रूप और आकार की भी रचना होती है। जिस प्रकार साहित्य में या भाषा में क्रिया के बिना भाव-प्रदर्शन नहीं हो सकता, उसी भाँति चित्रकला में रेखाओं के बिना किसी क्रिया का बोध नहीं कराया जा सकता।

सीधी खड़ी रेखाएँ ऊपर की ओर उठकर मन को ऊपर ब्रह्माण्ड की ओर ले जाती है। उनके सहारे मन ऊपर चढ़ता जाता है और एक काल्पनिक जगत् की ओर अग्रसर होता है। ये मन को जटिलता से उठाकर एकाग्रता की ओर खींचती हैं। इसीलिए मन्दिर, मसजिद, गिरजे इत्यादि के भवन अधिकतर अत्यन्त ऊँचे बनाये जाते है। उनके भवनों की ऊँचाई देखकर मन भी ऊँचे उठता है। मन में स्पष्टता, दृढ़ता और पवित्रता का बोध होने लगता है। इस तरह खड़ी रेखाएँ कल्पना तथा एकाग्रता का प्रतीक हो जाती हैं और इनका उपयोग करके चित्र में ये भाव सरलता से लाये जा सकते हैं।

इसके विपरीत पड़ी रेखाएँ मन को ऊपर न उठाकर एक सीमा में बांध देती हैं, जिससे मन एकाग्र न होकर इधर-उधर उन पड़ी रेखामों के साथ दौड़ने लगता है। इस प्रकार की रेखाएँ सांसारिकता की धोतिका है। इन रेखाओं में प्रगति की कमी का आभास होता है। ये मनुष्य के विचारों को भी एक सीमा में बांध देती हैं और शक्ति न देकर दौर्बल्य का बोध कराती हैं। लेटे हुए और खड़े हुए दोनों मनुष्यों को देखने से विपरीत भाव उत्पन्न होते हैं। सोया हुआ व्यक्ति शक्तिहीन ज्ञात होता है। खड़ा हुआ क्रियाशील जान पड़ता है। प्राचीन काल में जब राजा विजय करके लौटता था तो एक ऊँचे से ऊँचा विजयस्तम्भ बनवाता था और यह विजयस्तम्भ कभी भी पड़ा हुआ नहीं बनाया जाता था। इसका ऊँचा तथा सीधा खड़ा होना अत्यन्त आवश्यक था।