पृष्ठ:कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ.djvu/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७७
चित्रकला

ही चित्रित भी किया जाता है, पर उसे यदि कोई लाल रंग से चित्रित करे तो वह और प्रभावशाली लगेगा और अपनी प्रकृति के अनुसार ही चित्रित होगा। बहुत से पौराणिक भारतीय चित्रों में बहुधा सूर्य को लाल रंग से ही चित्रित किया गया है। रंगों के प्रभाव और उनकी आवश्यकताओं की उपयोगिता का विचार करके ही भारतीय चित्र निर्मित हुए हों, ऐसा देखने में बहुत कम आता है, प्रधानतः वे चित्र जो बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल से पूर्व या बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक पचास वर्षों में बने हैं। इसका मुख्य कारण यही रहा है कि रंग और उनकी विशेषताओं को अच्छी तरह समझने का बहुत कम प्रयत्न हुआ है। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारतवर्ष में जो चित्रकला उपजी है, वह पाश्चात्य कला का अनुकरणमात्र ही रही और वह भी बहुत मध्यम श्रेणी की। इस समय कुछ चित्रकार ऐसे भी थे जो अपने को पौर्वात्य कहते रहे और अपने चित्रों को आदर्शवाद के भीतर सम्मिलित करते रहे। जिन लोगों पर पश्चिम की छाप पड़ी, उनके रंगों का प्रयोग केवल सृष्टि के अनुकरण मात्र तक ही सीमित रहा । वे आँखों से जैसा चित्र देखते थे वैसा ही उसमें रंग भर देते थे और उसमें वे अपनी ओर से सोच-विचार कर रंगों का वैज्ञानिक प्रयोग नहीं करते थ। पौर्वात्य चित्रकार अपने को भारतीय प्राचीन कला-परंपरा का अनुयायी बताते रहे और उन्होंने उसको समझने और उसके अनुसार चलने का प्रयास भी किया, पर खोज का काम अधिक न हो सका। उन्होंने केवल प्राचीन चित्रों का ही आश्रय लिया और उन्हींका अनुकरण किया, जैसा वे समझ सके उसीके अनुसार चित्रकारी करने लगे। यदि कोई अजन्ता से प्रभावित हुआ तो वह उसी तरह के रूप, वैसे ही रंगों का प्रयोग अपने चित्रों में करने लगे। वह इस ओर नहीं झुका कि रंगों के चुनाव का आधार क्या था, जानने का प्रयत्न करता। मुगल चित्रकार सभी चित्रों में अधिकतर लाल चमकदार रंग भरते थे, अतः इन चित्रकारों ने अन्धाधुन्ध अनुकरण करना प्रारंभ किया। ऐसा उन्होंने किसी विवेक से नहीं किया। इस प्रकार के दोनों ही चित्रकार यदि कभी अपने आदर्शों का अतिक्रमण भी करते तो केवल इतना ही कि वे अपनी रुचि के रंगों को भी अपने चित्रों में स्थान देने लगे थे, जिसके लिए उनके पास अपना कोई सिद्धान्त नहीं था, केवल प्रतिक्रियात्मक प्रयोग से वे समझने का प्रयत्न करते थे कि कहां कैसा रंग अच्छा लगेगा। चित्र बनाने की कसौटी या पहचान यह थी कि अच्छा या सुन्दर चित्र कैसे बनेगा। इसके भी कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं थे, केवल तात्कालिक प्रयोग की सहायता से वे जान लेते थे कि कौन-सा रंग कहाँ सुन्दर लगता है। यदि चित्र में क्रोधी रावण चित्रित करना है तो उसका वस्त्र वे हरे या नीले रंग का भी बना सकते थे, क्योंकि वह