उसमें भी इस तरह की एक ही स्थिति में सभी वस्तुएँ नहीं होंगी। जैसे――सेनापति सामने अलग खड़ा होकर आज्ञा दे रहा होगा और दूसरे उपसेनापति भी अलग दिखाई पड़ेंगे। इसी तरह नृत्य में भी नायिका संभवतः कोई दूसरा ही रूप दिखा रही होगी।
इस तरह संयोजन करते समय खड़े होने, बैठने, झुकने, लेटने इत्यादि सभी स्थितियों का सम्मिश्रण होना चाहिए। किसी का सामने का रूप, किसी की पीट, किसी का आधा भाग, किसीका चौथाई भाग दिखाई पड़ेगा। इस प्रकार की सैकड़ों स्थितियाँ हो सकती हैं, पर आवश्यकता के अनुसार चुनकर एक रुचिकर संयोजन करना चाहिए। वैसे तो चित्र-कलाकार को इस तरह की स्थितियाँ चुनने की पूरी स्वतंत्रता है, पर यह सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि चित्र में रूढ़ता न आने पाये, बल्कि चित्र में भाव-वैचिश्य की वस्तुएँ रहें ताकि देखने में चित्र भोंड़े न जान पड़ें।
पुनरावृत्ति
चित्रकला में भी काव्यकला तथा संगीतकला के अनुसार लय तथा छन्द गति लाने के लिए कुछ रेखाओं, कुछ रंगों और कुछ रूपों को दोहराने की आवश्यकता पड़ती है। जैसे――संगीत में कुछ झनकारों और कविता में कुछ शब्दों को बार-बार दोहराना पड़ता है, उसी प्रकार चित्रकला में कुछ प्राकारों को बार-बार कई स्थानों में दिखाना पड़ता है। इससे चित्र में एकता बढ़ जाती है। रंगों से भी यह एकता लायी जाती है। संध्या समय सूर्य की लाल किरणें जब सृष्टि के पदार्थों पर पड़ती हैं तो सभी में कुछ लालिमा आ जाती है। इसी प्रकार चित्र में रंगों को बार-बार दुहराना पड़ता है। पर इस तरह की पुनरावृत्ति का बहुत ही सावधानी से प्रयोग करना चाहिए। इतना अधिक प्रयोग नहीं होना चाहिए कि वही प्रधान होकर खटकने लगे। विचारपूर्वक यदि यह पुनरावृत्ति की जाय तो चित्र में बहुत बल आ जाता है, रोचकता बढ़ जाती है और संगीत की तरह चित्र में भी चित्ताकर्षक भाव उत्पन्न हो जाता है जो मन को अत्यधिक आनन्दित करता है। आवश्यकता से अधिक ऐसा करने से चित्र में खींचतान के द्वारा एक रूढ़ता उत्पन्न हो जाती है और वह चित्र केवल बाजीगर के विस्तार-सा ही रह जाता है।
ऊपरी सतह की बनावट
इससे तात्पर्य किसी रूप या आकारके खुरदुरेपन, चिकनेपन, चमक, कोमलता, कठोरता, जाला, कांटे, या उसके इस तरह के और किसी अन्य ऊपरी स्तर की रचना से होता