सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५० राहु केतु भौ भानु चन्द्रमा विधि संजोग परी । कहत कबीर सुनो भाई साधा होनी होके रही ॥ १८७ ॥ सतो राह दोऊ हम डीठा । बाँग पुकारै । हिन्दू तुरुक हटा नहिं मान स्वाद सबन को मीठा ॥ हिन्दू बरत एकादसि साधै दूध सिघाड़ा सेती । अन को त्यागै मन नहि हटके पारन करै सगोती ॥ रोजा तुरुक नमाज गुजारै बिसमिल उनकी भिस्त कहाँ ते होई है साँझे हिन्दू दया मेहर को तुरकन दोनों घट वै इलाल वे फटका मारैं आगि हिन्दू तुरुक की एक राह है कहैं कबीर सुनो हो सन्तो राम न कहेउ खोदाई ॥ १८८ ॥ अरे इन दोउन राह न पाई । दुनों मुरगी मारै ॥ सो त्यागी । घर लागी ॥ सदगुरु इह बताई । हिंदुआई || हिन्दू अपनी करै बड़ाई गागर छुषन न देई । वेस्या के पायन तर सोधें यह देखो मुसलमान के पीर भौलिया मुरगी खाला केरी बेटी ब्याह्रै घरहि में बाहर एक मुरदा लाये धोय मुरगा खाई । धाय चढ़वाई । करें सगाई ।। सब सखियाँ मिल जेवन बैठीँ घरभर करे बड़ाई ।। हिन्दुन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुरकाई । कहैं कबीर सुनो भाई साधो कौन राह हो जाई ॥ १८६ ॥ मन न रंगाये रंगाये जोगी कपरा । भासन मारि मंदिर में बैठे नाम छाड़ि पूजन लागे पथरा ॥ कमया फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौल दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ मैले बकरा