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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१९२

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गंग
१३७
 

गंग कवि फल फूटे भुआ उधिरान लखि
सबन निरास ह्वै कै निज गृह भग्यो है।
ऐसो फलहीन वृच्छ बसुधा में भयो यारो
सेमर बिसासी बहुतेरन को ठग्यो है॥७॥
मृगहू ते सरस बिराजत बिसाल दृग
देखिये न अति दुति कौलहू के दल मैं।
"गंग" धन दुज से लसत तन आभूषन
ठाढ़े द्रुम छाँह देख ह्वै गई बिकल मैं।
चख चित चाय भरे शोभा के समुद्र माँझ
रही ना सँभार दसा और भई पल मैं।
मन मेरो गरुओ गयोरी बूड़ि मैं न पायो
नैन मेरे हरुये तिरत रूप जल मैं॥८॥
चकई बिछुरि मिली तू न मिली प्रीतम सों
गंग कवि कहै ये तो कियो मान ठानरी।
अथये नछत्र ससि अथई न तेरी रिस
तू न परसन परसन भयौ भान री।
तू न खोली मुख खोलो कंज औ गुलाब मुख
चली सीरी वाय तू न चली भो बिहान री।
राति सब घटी नाहीं करनी ना घटी तेरी
दीपक मलीन ना मलीन तेरो मान री॥९॥
अधर मधुप ऐसे वदन अधिकानी छवि
विधि मानो बिधु कीन्हो रूप को उदधि कै।
कान्ह देखि आवत अचानक मुरछि परयो
बदन छपाइ सखियान लीन्हो मधि कै।
मारि गई गंग द्वग शर वेधि गिरिधर
आधी चितवनि मैं अधीन कीन्हो अधिकै।