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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१९९

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कविता-कौमुदी
 

एक देस हम देखिया जहँ सत नहि पलटै कोइ।
हम दादू उस देस के जहँ सदा एक रस होइ॥११॥
सुरंग नरक संसय नहीं जिवण मरण भय नाहिँ।
राम बिमुख जे दिन गये सो सालैं मन माँहिँ॥१२॥
मैं ही मेरे पीट सर मरिये ताके भार।
दादू गुरु परसाद सों सिर थैं धरी उतार॥१३॥
दादू मारग कठिन है जोवत चलै न कोइ।
सोई चलि है बापुरा जे जीवत मिरतक होइ॥१४॥
काया कठिन कमान है खींचैं बिरला कोइ।
मारे पाँचौ मिरगला दादू सूरा सोइ॥१५॥
जे सिर सौंप्या राम कौं सा सिर भया सनाथ।
दादू दे ऊरण भया जिसका तिसके हाथ॥१६॥
कहाँ सुनताँ देखताँ लेताँ देताँ प्राण।
दादू लो कतहूँ गया माटी घरी मसाण॥१७॥
जिहि घर निंदा साधु की सो घर गये समूल।
तिन की नीव न पाइये नाँव न ठाँव न धूल॥१८॥

पद

हुसियार रहो मन मारैगा साईं सतगुरु तारैगा॥
माया का सुख भावै मूरिख मन बौरावे रे॥
झूठ साच करि जाना इन्द्री स्वाद भुलाना रे॥
दुःख कौं सुख करि मानै काल झाल नहि जानै रे॥
दादू कहि समझावै यह अवसरबहुरि न पावैरे॥१॥

भाई रे ऐसा पंथ हमारा।

द्वै पख रहित पंथ गहि पूरा अवरण एक अधारा॥
वाद विवाद काहू सौं नाहिं माहिं जगत थैं न्यारा।
सम दृष्टी हूँ भाई सहज में आपहि आप विचारा॥