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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२१३

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कविता-कौमुदी
 

दुरदिन परे रहीम कहि भूलत सब पहचानि।
सोच नहीं वित हानि को जो न होय हित हानि॥६॥
को रहीम पर द्वार पर जात न जिय पछितात।
संपति के सब जात हैं विपति सुबहिं लै जात॥७॥
जो रहीम होती कहूँ प्रभु गति अपने हाथ।
तौ को धौं केहि मानतो आप बढ़ाई साथ॥८॥
जो रहीम मन हाथ है मानसा काहू किन जाहि।
जल में जो छाया परौ काया भोजती नाहिं॥९॥
तेहि प्रमाण चलिबो भलो सब दिन ठहराय।
उमड़ि चलै जल पारतें जो रहीम बढ़ि जाय॥१०॥
यों रहीम सुख दुःख सहत बड़े लोग सह शांति।
उवत चन्द्र जिहि भाँति सों अथवत वाही भाँति॥११॥
माह मास लहि टेसुआ मीन परे थल भौर।
त्यों रहीम जग जानिए छुटे आपनो ठौर॥१२॥
कहि रहीम संपति सगे बनत बहुत बहुरीत।
बिपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत॥१३॥
तबहीं लग जीबो भलो दीबो परै न धीम।
जिन दीबो जीवो जगत हमहिं न रुचै रहीम॥१४॥
रहिमन दानि दरिद्र तर तऊ जाँचिबे जोग।
ज्यों सरितन सूखा परे कुवाँ खनावत लोग॥१५॥
रहिमन देखि बड़ेन को लघुन दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई कहा करे तरवारि॥१६॥
बड़ माया को दोष यह जो कबहूँ घटि जाय।
तो रहीम भरिबो भलो दुःख सहि जिये बलाय॥१७॥
धनि रहीम गति मीन की जल बिछुरत जिय जाय।
जियत कंज तजि अंत बसि कहा भौर को भाय॥१८॥