सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७८
कविता-कौमुदी
 


ये बड़े प्रेमी। जीव थे। इश्क का लुत्फ तो इन्होंने नौजवानी ही से उठाया था इससे प्रेम की महिमा ये भलीभाँति समझते थे। इन्होंने सं॰ १६७१ में 'प्रेम बाटिका' नामक दोहों का एक ग्रन्थ बनाया। उसके कुछ दोहे सुनिये—

दम्पति सुख अरु विषय रस पूजा निष्ठा ध्यान।
इनतें परे बखानिये शुद्ध प्रेम रसखान॥१॥
मित्र कलत्र सुबन्धु सुत इन में सहज सनेह।
शुद्ध प्रेम इनमें नहीं अकथ कथा सविसेह॥२॥
इक अंगी बिनु कारनहिं इकरस सदा समान।
गनै प्रियहिं सरवस्व जो सोई प्रेम प्रमान॥३॥
डरै सदा चाहै न कछु सहै सबै जो होय।
रहै एक रस चाहि कै प्रेम बखानौं सोय॥४॥
अति पतरो अति दूर प्रेम कठिन सब तें सदा।
नित इकरस भरपूर जग में सब जान्यो परै॥५॥

अपने विषय में इन्होंने यह लिखा है:—

देखि ग़दर हित साहिबी दिल्ली नगर मसान।
छिनहिँ बादसा बंस की ठसक छोड़ि रसखान॥१॥
प्रेम निकेतन श्री बनहिँ आय गोवर्धन धाम।
लह्यो सरन चित चाहिकै जुगल सरूप ललाम॥२॥

इनकी कविता में प्रेम की प्रधानता है। भक्त और प्रेमी होकर शृंगार रस पर भी इन्होंने बड़ी ललित कविता की है। इनके रचे हुये सुजान रसखान में से कुछ छन्द चुनकर हम नीचे प्रकाशित करते हैं—

मानस हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पशु हौं तौ कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मँझारन॥