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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२४१

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कविता-कौमूदी
 


रोजायताँ तणैं नवरोजै जेथ मुसाणा अणो अण।
हिन्दू नाथ दिलीचे हाटे पतो न खरचै क्षत्री पण॥
परपँच लाज दीठ नह व्यापण खोटो लाभ अलाभ खरो।
रज बेचबाँ न आबे राणो हाटे मोर हमीर हरो॥
पेखे आपतणा पुरुषोत्तम रह अणियाल तणैं बल राण।
छत्र बेचियाँ अनेक खत्रियाँ खत्रवट थिर राखी खूमाण॥
जासी हाट बात रहसी जग अकबर ठग जासी एकार।
रह राखियों खत्री ध्रम राणै साराले बरतो संसार॥

जहाँ पर मानहीन पुरुष और लज्जाहीन स्त्रियाँ हैं, और अकबर जैसा ग्राहक है, उस चौपड़ के बाजार में जाकर चित्तौड़ का स्वामी राजपूती का भाग कैसे बेंचेगा?

मुसलमानों के नवरोज के समय प्रत्येक व्यक्ति लुट गया। परंतु हिन्दुओं का पति प्रतापसिंह उस दिल्ली के बाजार में अपना क्षत्रियपन क्यों खरचे?

वंशलज्जा से भरी दृष्टि पर अन्य का प्रपंच नहीं व्यापता। इसी से पराधीनता के सुख के लाभ को बुरा और अलाभ को अच्छा समझ कर बादशाही दूकान पर रज बेचने के लिये हमीर का पोता राणा प्रतापसिंह कदापि नहीं आता।

अपने पुरुषाओं का उत्तम कर्त्तव्य देखते हुये महाराणा ने भाले के बल से क्षत्रिय धर्म को अचल रक्खा और अन्य क्षत्रियों ने अपने क्षत्रियत्व को विक्रय कर डाला।

ठग रूपी अकबर भी एक दिन इस संसार से चला जायगा और हाट भी उठ जायगी। परंतु संसार में यह बात भमर रह जायगी कि क्षत्रिय धर्म में रह कर उस धर्म को केवल राणा प्रताप ही ने रवखा; अब सब उसे काम में लाओ।