तूरहि सखि हौंहीं लखौं चढ़ि न अटावलि बाल।
बिनही ऊगे ससि समुझि देहैं अर्घ अकाल॥११॥
नाक चढ़े सीबी करै जितै छबीली छैल।
फिरि फिरि भूलि उहै गहै पिय कँकरीली गैल॥१२॥
अलि इन लोयन को कछू उपजी बड़ी बलाय।
नीरभरे निंत प्रति रहैं तऊ न प्यास बुझाय॥१३॥
इन दुखिया अँखियान को सुख सिरजोई नाहिं।
देखत बनै न देखते बिन देखे अकुलाहि॥१४॥
लरिका लेबे के मिसुनि लंगर मों ढिग आय।
गयो अचानक आँगुरी छाती छैल छुवाय॥१५॥
डग कुडगति सी चलि ठठकि चितई चली निहारि।
लिये जात चित चोरटी वहै गोरटी नारि॥१६॥
फेर कछू करि पौरते फिर चितई मुसक्याय।
आई जामन लेन को नेहै चली जमाय॥१७॥
यद्यपि सुन्दर सुघर पुनि सगुनो दीपक देह।
तऊ प्रकास करै तितो भरिये जितो सनेह॥१८॥
जो चाहत चटक न घटै मैलो होय न मित्त।
रज राजस न छुवाइये नेह चीकने चित्त॥१९॥
अनियारै दीरघ नयनि किती न तरुनि समान।
बह चितवनि औरे कछ जिहि बस होत सुजान॥२०॥
घर जीते सर मैन के ऐसे देखे मैंन।
हरिनी के नैनानतें हरि नीके ये नैन॥२१॥
बेसर मोती धनि तुही को पूछै कुल जाति।
पीबो कर तिय अधर को रस निधरक दिनराति॥२२॥
तो लखि मो मन जो गही सो गति कही न जात।
ढ़ोड़ी गाड़ गड़्यो तऊ उड़्यो रहत दिगरात॥२३॥
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कविता-कौमुदी