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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२९४

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जसवन्तसिंह
२३९
 

धरम दुरै आरोप तें सुद्धापन्हुति होय।
उर पर नाहिं उरोज ये कनक लता फल दोय॥३॥
परजस्ता गुन और को और विषे आरोप।
होय सुधाधर नाहि यह बदन सुधाधर ओप॥४॥


 

बनवारी

नवारी सं॰ १६९० के लगभग हुये। शाहजहाँ के दरबार में सलाबतखाँ ने अमरसिंह को "गँवार" कह दिया था। इसी पर क्रुद्ध होकर अमरसिंह ने उसे दरबार ही में मार डाला। बनवारी ने उसी समय की घटना लेकर ये कहे हैं:—

धन्य अमर छिति छत्रपति अमर निहारो मान।
साहजहाँ की गोद में हत्यो सलाबत खान॥

उत गँकार मुख तें कढ़ी इत निकसी जमधार।
"वार" कहन पायो नहीं कीन्हो जमधर पार॥

आनि के सलाबत खाँ जोरि कै जनाई बात
तोरि धर पंजर करेजे जाय करकी।
दिल्लीपति साह को चलन चलिबे को भयो
गाज्यो गजसिंह को सुनी है बात बरकी।
कहै बनवारी बादसाहि के तखत पास
फरकि फरकि लोथ लोथिन सों अरकी।
करकी बड़ाई कै बड़ाई बाहिबे की करौं
बाढ़ि की बड़ाई कै बड़ाई जमघर की॥