देखी तब उसी समय वे शेख के घर गये, और उन्होंने उसे एक आना पगड़ी की रँगाई और एक हजार रुपये दोहे की पूर्ति कराई दी। उसी दिन से दोनों में प्रेम हो गया। यहाँ तक कि आलम ने मुसलमानी मत ग्रहण करके शेख से विवाह कर लिया। आलम और शेख दोनों की कविताएँ प्रेमके चमत्कार से पूर्ण हैं। शेख के गर्भ से आलम के एक पुत्र भी था, जिसका नाम जहान था। एक दिन मुअज्जम ने हँसी में शेख से पूछा—"क्या आलम की औरत आपही हैं?" शेख ने तुरन्त उत्तर दिया—"हाँ, जहाँपनाह, जहान की माँ मैं हीं हूँ"। मुअज्जम इससे बहुत लज्जित हुआ।
कोई कोई ऊपर के दोहे के स्थान पर शेख द्वारा नीचे लिखे कवि के चतुर्थ चरण की पूर्ति होनी बतलाते हैं। तीन चरण आलम ने बनाये थे, चौथे चरण की पूर्ति शेख ने की:—
प्रेम रँग पगे जगमगे जगे जामिनि के जोबन की जोति
जगि जोर उमगत हैं। मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं
झूमत हैं झुकि झुकि झँपि उघरत हैं। आलम सोनवल निकाई
इन नैननि की पाँखुरी पदुम पै भँवर थिरकत हैं। चाहत हैं
उड़िबे को देखत मयंक मुख जानत हैं रैनि ताते ताहि में
रहत हैं॥
पंडित नकछेदी तिवारीने इसी घटना सम्बंधी एक और ही कवित्त लिखा है। वह यह है:—
घूँघट जमानिका है कारे कारे केश निशि खुटिला जराय
जरे दीपक उजारी है। बाजत मधुर मृदबानी सो मृदङ्ग धुनि
नैना नटनागर लकुट लट धारी है। आलम सुकवि कहै रति
विपरीत समै श्रम बिन्दु अंजुलि पुहुप भरि डारी है। अधर सु