महीप जू को बालक बसंत ताहि प्रात हिये लावत गुलाब
चटकारी दे॥३॥
नील पट तन पर घन से घुमाय राखौं दन्तन की चमक
छटा सी बिचरति हौं। हीरन की किरन लगाइ राखौं जुगनू सी
कोकिला पपीहा पिक बानी सों भरति हौं। कीच अँसुवान के
मचाय कवि "देव" कहै बालम बिदेश को पधारिबो हरति हौं।
इन्द्र कैसो धनु साज बेसर कसत आज रहुरे बसंत तोहिँ
पावस करति हौं॥४॥
आयन सुनो है मन भावन को भावती ने आँखित अनंद
आँसू ढरकि ढरकि उठैं। "देव" द्वग दोऊ दौरि जात द्वार देहरी
लों केहरी सी साँसैं खरी खरकि खरकि उठैं। टहलै करलि टहलै
न हाथ पाँय रंग महलै निहारि तनी तरकि तरकि उठैं। सरकि
सरकि सारी दकि दरकि आँगी औचक उचैहैं कुच फरकि
फरकि उठैं॥५॥
प्रेम चरचा है अरचा है कुल नेमन रचा है चित और
अरचा है चित चारीको। छाड्यो परलोक नरलोक वरलोक कहा
हरख न सोक ना अलोक नरनारी को। घाम सित मेह न बिचारैं
सुख देहहु को प्रीति ना सनेह उरु बन ना अंध्यारी को। भूलेहु
न भोग बड़ी विपति वियोग व्यथा जोग हू ते कठिन सँजोग
परनारी को॥६॥
दुहूँ मुख चंद और चितवें चकोर दोऊ चितै चितै चौगुनो
चितैबो ललचात हैं। हाँसनि हँसत बिन हाँसी बिहुँसत मिले
गातनि सों गात बात बानि मे बात हैं। प्यारे तन प्यारी पेखि
पेखि प्यारी पिय तन पियत न खात नेकहूँ न अनखात हैं।
देखि ना थकत देखि देखि ना सकत "देव" देखिये की घात
देखि देखि व अबात हैं॥७॥