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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३२६

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वृन्द
२७१
 

विद्या धन उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन।
बिना। डुलाये ना मिले ज्यों पंखा की पौन॥११॥
ओछे नर की प्रीति की दीनी रीति बताय।
जैसे छीलर ताल जल घटत घरत घट जाय॥१२॥
बुरे लगत सिस्त्र के वचन हिये विचारो आप।
करुवी भेषज बिन पिये मिटै न तम की ताप॥१३॥
गुरुता लघुता पुरुष की आश्रय वशतें होय।
करी वृंद में विध्य सों दर्पन में लघु सोय॥१४॥
रहे समीप बड़ेन के होत बड़ा हित मेल।
सबही जानत बढ़त है वृक्ष बराबर बेल॥१५॥
होय बड़ेरु न हूजिये कठिन मलिन मुख रङ्गः।
मर्दन बंधन छत सहन कुच इन गुननि प्रसंग॥१६॥
कहूँ जाहु नाहिंन मिटत जो विधि लिख्यो लिलार।
अंकुश भय करि कुंभ कुच भये तहाँ नख मार॥१७॥
फेर नह ह्वै है कपट सोँ जो कीजे व्यौपार।
जैसे हाँडी काठ की चढ़ैन दूजी बार॥१८॥
करिये सुखको होत दुख यह कहो कौन सयान।
वा सोने को जारिये जासों टूटे कान॥१९॥
नयना देत बताय सब हिय कौ हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी भली बुरी कहि देत॥२०॥
अति परचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी चंदन देति जराय॥२१॥
भले बुरे सब एक सों जौं लौं बोलत नाहि।
जानि परतु हैं काक पिक ऋतु बसंत के माहि॥२२॥
निष्फल श्रोता मूढ़ पै कविता वचन बिलास।
हाव भाव ज्यों तीयके पति अंधे के पास॥२३॥