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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४५७

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कविता-कौमुदी
 

माटिहू में कछु स्वाद मिलै इन्है खाय सो ढूँढ़त हरें बहेरे।
चौंकि परयो पितु लोक में बाप सो पूत के देखि सराधके पेरे।

३१

आपु को बाहन बैल बली बनिताहु को बाहुन सिहहि पेखिकै।
मूसे को बाहन है सुत एक सु दूजो मयूर के पच्छ बिलेखिकै।
भूषन हैं कवि "चैन" फनिंद के बैर परे सब ते सब लेखि कै।
तीनहुँ लोक के ईश गिरीश सु योगो भये घरकी गति देखिकै।

३२

सूरज के रथ लागे रह्यो याके आगे भयो कई बार कन्हैया।
लोमशके लरिकाई के खेल को भूलि गयो जग को उपजैया।
ऐसो तुरंग मँगाय के भूपति दान को काढ़ो दरिद्र को छैया।
झुंडन काक लगे फिरैं संग मनो यह काक भुशुंडि को भैया।

३३

गंग नहीं मुकता भरी माँग है चन्द्र नहीं यह उद्यत भाल है।
नील नहीँ मखतूल को पुंज है शेष नहीं शिर बेनी बिशाल है।
भूति नहीं मलयागिरि है विजया है नहीं बिरहा से बेहाल है।
एरे मनोज सँभारि के मारियो ईश नहीं यह कोमल बालहै।

२४

पीनसवारो प्रवीन मिलै तौ कहाँ लौं सुगन्धी सुगन्ध सुँघावै।
कायर कोपि चढ़ै रन में तौ कहाँ लगि चारण चाव बढ़ावै।
जैसे गुणीकोमिलैनिगुणी तो "पुखी" कहै क्यों करताहिरिझावै।
जैसे नपुंसक नाह। मिलै तौ कहाँ लगि नारि शृङ्गार बनावै।

२५

जौ सहजै सब काम करैँ सहमैं त्यहि हेरि हिये कहला कर।
ना तौ जवान की नोकैं बसैं निरखे परैं औगुनके अति आकर।