पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/७४

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विद्यापति ठाकुर १६ नन्दक नन्दन कदम्बेरि तरु तरे धिरे धिरे मुरलि बलाब । समय संकेत निकेतन बरसल वेरि बेरि बोलि पठाव ॥ सामरी तोरा लागि अनुखने विकल मुरारि 1 जमुना का तिर उपवन उदवेगल फिरि फिर ततहि निहार । गोरस बिके अबइते जाइते जनि जनि पुछ बनमारि ॥ तो हे मतिमान सुमति मधुसूदन वचन सुनह किछु मोरा । भइ विद्यापति सुन बर जौवति बन्दह नन्दकिशोरा ॥ १ ॥ कि कहब हे सखि आजुक बात, मानिक पड़ल कुयनिक हात । काच कांचन न जानय मूल, गुंजा रतन करइ समतूल | जे किछु कभु नहिं कला रस जान, नीर खीर दुहुँ करे समान । तन्हि सो कहाँ पिरित रसाल, बानर कण्ठे कि मोतिय माल । भनइ विद्यापति इह रस जान, बानर मुँह कि शोभय पान ॥ २ ॥ सजनी अपद न मोहिं परबोध । तोड़ि जोड़िअ जाहाँ मैंठे पर पड़ ताहाँ तेज तम परम विरोध ॥ सलिल सनेह सहज थिक सीतल ई जानइ सबे कोइ । से जदि तपत कए जतने जुड़ाइय तहअओ विरत रस होइ ॥ मेल सहज हे कि । रिति उपजाइअ कुल खसि अनुभवि पुनि अनुभवए अचेतन पड़ए हुतास कालि कहल पिआ ए साँझ हिरे जायब मोये नीली रंग | पतङ्ग ॥ ३ ॥ मारू देश । मोये अभागिली नहिं जानल रे सङ्ग नइतओ योगिनी वेश ॥