पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/४०

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कविबचनसुधा।

दासी सबै हम है हैं लला मुख ते भरतार कहाँ चितचोर को ।।

जानि हैं जो इनके गुनको तिनके जग दोऊ सबै विधि बानि है । बानि है विश्व के पोषण की तिन को मरतार कहैं कछु हानि है । हानि है प्रेम सखी कवहूं जिन को सिय आपु सखी करि मानि है ।। मानिहै ताहि बिरंचि सदा जिन पै सियकी सियरी दृग जानि है।

रामलला झूलना।

महबूब गली दलदली खूब पग धरतेही अरझट्ट हुआ। फिर कोई उपाय नहि बन्य परै जग सेती भी खटपट्ट हुअा।। दिलगीर फकीर फिराक वही गलतान हाल बरबट्ट हुआ। रामलला उस छैल छबीले को लखते झटपट्ट हुआ ॥ ५८ ॥ पग नख सुखमा खोजत उपमा थकि रही शारदा भटाक २। घनश्याम रूप अभिराम देख गयो काम वामयुत सटकि २ ॥ सुनु बीर कीर की नाई मन फँसि जुलफ जाल में लटकि २ । रामलला हग बांकेन में सखियां अंखियां रहि अटकि अटकि।।

बन ठन्य चले सब छैल भले लखि मोही पुर नागरिया जी । केती मोह जाल फँसि बस्य भई मुसक्यान मोहनी केती डारियां जी ।। केती जुल्फ पेंच विच उरमि रही केती नैन सैन सों मारियां जी। रामलला लखि छक्य रही तन धन धाम सुवारियां जी ॥ ६०॥

कटि पट पीत तुनीर कसे चहुँघा मुक्ताहल लागरियां । सर चाप मनोहर भुज विशाल सिर क्रीट अधिक छवि आगरिया।। चख चंचल रूप अनूप लसै मुसकान मनोज उजागरिया ।