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कविबचनसुधा।


आवन कहि आये नहीं मन कपटी चितचोर । मदन प्राण-ग्राहक भयो तुम बिन नन्दकिशोर ॥ ९२ ॥ बोले ते बोले नहीं अनबोले जिय लेत । रसिक लाल या निठुर सों कैसे कीजै हेत ॥ ९३ ॥ नैनों के नोके बुरे उर सालत ज्यों तीर । ढूंढे घाव न पाइये बेध्यो सकल शरीर ॥ ९४ ॥ केतिक पनिघट घाट में केतिक हाट बजार । रसिकलाल नैनान के मारे परे हजार ॥ ९५ ॥ जब सुधि आवत मित्र की बिरह उठत तन जागि। ज्यों चूने की कांकरी जब छिरकहु तब आगि ॥ ९६ ॥ जाकी जासो लगन है रेकि सकै धौ कोय । नेह नीर इक सम बड़े रोके दुनो होय ॥ ९७ ॥ जाकी जासो लगन है कहां जाति कह पांति । गुदरो कैसे ठीकरी अपनी अपनी भांति ॥ ९८ ॥ तुम सुजान अलगरज हौ गरज बड़ी इत माहिं । दरस देत इत नैन को खरच लगत का तोहिं ॥ ९९ ॥ रसिक लाल की अरज सुनि इतनो यश करि देहु । की हँसि हेरो नजरि भरि की हमरो जिय लेहु ॥ १०० ॥

कवित्त ।

आनन्द अशेष देत राखत कलेश नहि राजत गणेश दिीश एक छवि छाकी है। एक दिशि दिपत दिनेश सव देश देश मेटत हमेश तम तोम दुति जाकी है । एक दिशि लक्षमी नारा-