पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/६१

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कविवचनसुधा ।

मैलजी को है। विश्वबन्दनी को मन्द हास कन्द नीको मुख चन्दहू सों नीको बृषभान-नन्दनी को है ॥ ५० ॥

कूबरी की यारी को न सोच हमैं भारी ऊधो एकै अपसोस सांवरे की निठुरान को । योग जो लै आये सो हमारे सिर आखन पै राखन को ठौर तन तन को न आन को ॥ अङ्ग अङ्ग ब्रती हैं वियोग ब्रजचन्द जू के औध हिये ध्यान वा रसीली मुसकान को । आँखै अँसुवान को करेजो मैन-बान को औं कान बसीतान को जुबान गुनगान को ॥ ५१ ॥

उझकि झरोखे झांकि परम नरम प्यारी नेसुक देखाय मुख दूनो दुख दै गई । मुरि मुसक्याय अब नेकु ना नजरि जोरै चेटक सो डारि उर और बीज बै गई ॥ कहै कवि गङ्ग ऐसी देखी अनदेखी भली पेखै ना नजरि में बिहाल बाल के गई। गांसी ऐसी आंखिन सों आँसी आँसी कियो तन फासी ऐसी लटनि लपेटि मन ले गई ॥ ५२ ॥

सवैया ।

जानत तेई तुम्हें जेइ जान गुमान मेरे अपने मन में हौ । प्यार तें कोऊ कळू ना कहै चक हो जूपरे झख मारत हो। दूध औ पानी जुदो करिबे को कहै जब कोऊ कहा तब कै हो । श्वेतही रङ्ग मराल भए अब चाल कहौ जू कहां वह पैहो ।

एकै कहै सुख माल हरै मन के चढ़िवे की सिढ़ी इक पेखें । कान्ह को टोनों कियो कछु काम कबीश्वर एक यहै अबरेखै ।।