पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२
कविवचनसुधा।

बीति गई तीथि यो परमेश सो पानि तियानि को कानि मनै ना। साँवरी सूरत में अट की बटकी भटू भाँवरी देत गनै ना ॥५८||

बहु ज्ञान कथानि लै थाकी है। मैं कुल कानिहु को बहु नेम लियो। यह तीखी चितौनि के तारन त मनिदास तुणीर भयो इ हियो । अपने अपने घर जाहु सबै अबलों सखि सीख दियो सो दियो । अबतो हरि भौंह कमाननि हेतु हौ प्राणन को कुरबान किया ।

दास परस्पर प्रेम लखी गुन छीर को नीर मिले सरसातु है नीर बेचावत आपनो मोल जहां जहां जाइ के छीर विकातु है ।। पावक जारन छीर लगे तब नीर जरावत आपनो गातु है । नीर की पीर निवाहिबे कारण छीर घरी ही घरी उफनातु है ।

घर बाहर के सब घेरे फिरें जो अकेले कहूं करि पाइय तो। उनहीं की सबै मरजी की कहैं अपने जिय की समुझाइये तो ।। कहि ठाकुर लाल के देखिबे को अब मंत्र यही ठहराइये तो। बतियां कहिबो जिनसों न बनै छतियां कहीं कैसे लगाइये तो।।

एक वहै मुख देखाई भावत बादि सबै मिलि माइती राहो । कीजै कहा बस है न कळू सिगरी मिलि दाहन आई तो दाहो ॥ मोहिं न काज कछू कुलकानि सो जाहि निबाहन है सो निबाहो । मेरो तो माई उहै उर आनि रह्यो गड़ि गैयन को चरवाहो ॥

कबित्त ।

नैन नीको मृग को सुबैन नीको कोकिल को सैन नीको तीको गैन नीको बाज ताज को। चैन नीको ही को सुरैन अष्टमी को नीको ध्यैन छन्द नीको दैन नीको नीको नान को ।। स्वेन