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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२७०

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(२५६)

भामिनी! तेरा यह भाँति-भाँति से सुसज्जित और नया भवन उनकी सुन्दर स्वाभाविक शोभा धारण कर रहा है। हे मानिनी! मान समेत अनेक मानिनी नायिकाओ को वश मे करने वाला मेरा यह श्रीकृष्ण रूपी दीपक तेरे मन को प्रदीप्त कर रहा है।

उदाहरण (२)

(कवित्त)

दक्षिण पवन दक्षि यनि रमण लगि,
लोलन करत लौग लवली लता को फरु।
'केशौदास' केसर-कु सुम-कोश रसकण,
तनु तनु तिनहू को सहत सकल भरु।
क्यों हूँ कहूं होत हठि साहस विलाशवश,
चपक चमेली मिलि मालती सुबास हरु।
शीतल सुगन्ध मंद गति नॅद नॅद की सौ,
पावत कहाँ ते तेज तोरिबे को मान तरु॥२६॥

दक्षिणी पवन-रूपी यक्षिण नायक यक्षिणी स्त्रियो के रमने के स्नथान-हिमालय-तक, लौंग और लवली लताओ के फलो को हिला देता है। 'केशवदास' कहते है कि केसर के कुसुम कोषो के जो छोटे-छोटे रसकरण है। उनका भी पूरा भार सहन करता है। कहीं कहीं, किसी प्रकार हठपूर्वक तथा साहस हे, विलाश वश होकर, चम्पक चमेली और मालती से मिलकर उनकी सुवास को हरता है। श्रीकृष्ण की शपथ, यह शीतल सुगन्ध और मंद गति वाला दक्षिण पवन, न जाने कहा से मानरूपी वृक्ष को तोड़ने की सामर्थ्य पा जाता है।

२-मालादीपक

दोहा

सबै मिलै जहँ बरणिये, देशकाल बुधिवन्त।
मालादीपक कहत है, ताके भेद अनन्त॥२७॥