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कलंगा दुर्ग
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जनरल जिलेप्सी की मृत्यु से अंग्रेजी सेना में भय की लहर दौड़ गई। परन्तु मावी ने अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व हाथ में लेकर सेना को पीछे लौटने का आदेश दिया। अंग्रेज़ी सेना बेंत से पीटे हुए कुत्ते की भांति कैम्पों में लौट आई।

मावी अब किले पर आक्रमण का साहस न कर सकता था। वह घेरा डालकर पड़ा रहा। किलेवालों को सांस लेने का अवसर मिला।

मावी ने दिल्ली सेंटर को मदद भेजने को लिखा, और वहां से भारी तोपखाना और गोरी पलटन देहरादून आ पहुंची। इसके बाद नये साज-बाज से किले का मुहासरा किया गया। अब रात-दिन किले पर गोले बरस रहे थे। गोलों के साथ दीवारों में लगे अनगढ़ पत्थर भी टूट-टूटकर करारी मार करते थे। एक-एक करके किले के आदमी कम होते जाते थे। गोली-बारूद की भी कमी होती जाती थी। परन्तु बलभद्र सिंह की मूंछे नीचे झुकती नहीं थीं। उसका उत्साह और तेज वैसा ही बना हुआ था। इसी प्रकार दिन और सप्ताह बीतते चले गए।

अकस्मात् ही किले में पानी का अकाल पड़ गया। पानी वहां नीचे की पहाड़ियों के कुछ झरनों से जाता था। और अब ये करने अंग्रेजी सेना के कब्जे में थे। उन्होंने नाले बन्द करके किले में पानी जाना एकदम बन्द कर दिया था। धीरे-धीरे प्यासी स्त्रियों और बच्चों की चीत्कारें घायलों की चीत्कारों से मिलकर करुणा का स्रोत बहाने लगीं। दीवारें अब बिल्कुल भग्न हो चुकी थीं। उनकी मरम्मत करना सम्भव न था। तोप के गोले निरन्तर अपना काम कर रहे थे। उन तोपों की भीषण गर्जना के साथ ही जख्मियों की चीखें, पानी की एक बूंद के लिए स्त्रियों और बच्चों का कातर क्रन्दन दिल को हिला रहा था। ये सारी तड़पनें, चीत्कारें और गर्जन-तर्जन सब कुछ मिलकर उस छोटे-से अनोखे दुर्ग में एक रौद्र रस का समा उपस्थित कर रहा था। और उसकी छलनी हुई भग्न दीवारों के चारों ओर अंग्रेज़ी तोपें आग और मृत्यु का लेन-देन कर रही थीं।

एकाएक ही दुर्ग की बन्दूकें स्तब्ध हो गईं। कमानें भी बंद हो गईं। अंग्रेजों ने आश्चर्य-चकित होकर देखा। इसी समय दुर्ग का फाटक खुला। अंग्रेज सेनापति सोच रहा था कि बलभद्रसिंह आत्मसमर्पण करना चाहता है। उसने तत्काल तोपों को बंद करने का आदेश दे दिया। सारी अंग्रेज़ी सेना स्तब्ध खड़ी उस भग्न दुर्ग के मुक्तद्वार की ओर उत्सुकता से देखने लगी। बलभद्र ही सबसे पहले निकला। कंधे पर बंदूक, हाथ में नंगी तलवार, कमर में खुखरी, सिर पर फौलादी चक्र, गले में