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डाक्टर साहब की घड़ी
 

बड़े-बड़े इनाम-इकराम और भेटें प्राप्त की हैं, और इनाम और भेंटों की ये सब अनोखी चीजें उनके ड्राइंगरूम में सजी हुई हैं। बड़ी-बड़ी शेरों और चीतलों की खालें, मगर के ढांचे, असाधारण लम्बे पशुओं के सींग, बहुमूल्य कालीन, अलभ्य कारीगरी की चीजें, दुर्लभ चित्र और भारी-भारी मूल्य की रत्नजटित अंगूठियां, पिनें और कलमें। परन्तु इन सब में अधिक आश्चर्यजनक और बहुमूल्य वस्तु एक घड़ी है। यह घड़ी उन्हें एक इलाज के सिलसिले में नेपाल जाने पर वहां के दरबार से मिली थी। इसका आकार एक बड़े नींबू के समान है और यह नींबू के ही समान गोल है। उसमें कहीं भी घण्टे या मिनट की सुई नहीं, न अंक ही अंकित हैं। सारी घड़ी कीमती प्लाटिनम की महीन कारीगरी से कटी बूटियों से परिपूर्ण है और उसमें उज्ज्वल असल ब्रेज़ील के हीरे जड़े हैं। सिर्फ दो हीरे, जो सबसे बड़े हैं और जिनमें एक बहुत हलकी नीली आभा झकलती है, ऐसे मनोमोहक और कीमती हैं कि उन्हींसे एक छोटी-मोटी रियासत खरीद ली जा सकती है। उनमें जो बड़ा और तेजस्वी हीरा है उसपर उंगली की पोर के एक हलके-से स्पर्श का दबाव पड़ते ही घड़ी अत्यन्त मोहक सुरीली तान में घण्टा, मिनट, सैकंड सब बजा देती है। उसकी गूंज समाप्त होते-होते ऐसा मालूम देता है मानो अभी-अभी यहां कोई स्वर्गीय वातावरण छाया रहा हो। दूसरे हीरे को तनिक दबा देने से दिन, तिथि, तारीख, पक्ष, मास, संवत् सब ध्वनित हो जाते हैं। यही नहीं, घड़ी में हज़ार वर्ष का कैलेण्डर भी निहित है; हजार वर्ष पहले और आगे के चाहे जिस भी सन का दिन, मास और तारीख आप मालूम कर सकते हैं। ऐसी ही वह आश्चर्यजनक घड़ी है, जिसे डाक्डर साहब अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं। कहते हैं, एक बार हुजूर आलीजाहमहाराज ने पचास हजार रुपये इस घड़ी के डाक्टर साहब को देने चाहे थे, जिसपर डाक्टर साहब ने घड़ी महाराज के चरणों में डालकर कहा था-अन्नदाता, मेरा तन, मन, धन सब आपका है, फिर घड़ी की क्या औकात है; पर इसे मैं बेच तो सकता ही नहीं! और महाराज हंसते हुए चले गए थे। यह घड़ी स्वीडन के एक नामी कलाकार से नेपाल के लोकविख्यात महाराज चन्द्रशमशेर जंगबहादुर ने, जब वे विलायत गए थे, मुंहमांगा दाम देकर खरीदी थी और अपने इकलौते पुत्र के प्राण बचाने पर संतुष्ट होकर उन्होंने वह डाक्टर को दे डाली थी। वह घड़ी वास्तव में नेपाल के उत्तराधिकारी के प्राणों के मूल्य की थी। कमरे के बीचों-बीच बिल्लौर की एक गोल मेज़ थी। यह मेज़ ठोस बिल्लौर की थी, उसका