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सिंहगढ़-विजय
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तानाजी धुआंधार बढ़े चले आ रहे थे। दोपहर होते-होते ही उन्होंने खज़ाना धर दबाया था। उन्होंने देखा, यवन-दल कूच रोककर, मोर्चा बांधकर युद्ध-सन्नद्ध हो गया है। तानाजी ने भी आक्रमण रोककर वहीं मोर्चा डाल दिया। यवनदल ने देखा-शत्रु जो धावा बोलता हुआ पीछा कर रहा था, आक्रमण न करके वहीं मोर्चा बांधकर रुक गया है। इसके क्या माने? यवन-सेनापति ने स्वयं आक्रमण कर दिया।

यवनसेना को लौटकर धावा करते देख तानाजी ने शीघ्रता से पीछे हटना प्रारम्भ कर दिया। दो-तीन मील तक पीछा करने पर भी जब शत्रु भागता ही चला गया, तब यवन सेनापति ने अाक्रमण रोककर सेना की श्रृंखला बना फिर कूच कर दिया।

परन्तु यह देखते ही तानाजी फिर लौटकर यवन सेना का पीछा करने लगे। यवन सेनापति ने यह देखा। उसने सोचा, डाकू घात लगाने की चिन्ता में हैं। उसने क्रुद्ध होकर फिर एक बार लौटकर धावा किया, पर तानाजी फिर लौटकर भाग चले।

संध्या-काल हो गया। यवन सेनापति ने खीजकर कहा-ये पहाड़ी चूहे न लड़ते हैं और न भागते हैं, अवश्य अन्य सेना की प्रतीक्षा में हैं। साथ ही कम भी हैं। अतः उसने व्यवस्था की कि तीन हजार सेना के साथ खज़ाना आगे बढ़े और दो हजार सेना इन डाकुओं को यहां रोके रहे। इस व्यवस्था से आधी सेना के साथ खज़ाना आगे बढ़ गया। शेष दो हजार सैनिकों ने वेग से तानाजी पर आक्रमण किया। तानाजी बड़ी फुर्ती से पीछे हटने लगे। धीरे-धीरे अंधकार हो गया। यवन-दल लौट गया। परन्तु चतुर तानाजी समझ गए कि खज़ाना आगे बढ़ गया है। वे उपाय सोचने लगे। एक सिपाही ने घोड़े से उतरकर तानाजी की रकाव पकड़ी। तानाजी ने कहा-क्या है?

'आप जो सोच रहे हैं, उसका उपाय मैं जानता हूं।'

'क्या उपाय है?'

'यहां से बीस कोस पर एक गांव है।'

'फिर?'

'वहां मेरे बहुत सम्बन्धी हैं।'

'अच्छा।'