पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/५७

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थी। माता-पिता में कभी-कभी मेरे विवाह की भी चर्चा होने लगी। बहुधा इस विषय को लेकर दोनों में घण्टों तर्क-वितर्क भी हो जाता था। मैंने छिपकर कई बार उनकी बातें सुनने का प्रयत्न भी किया, पर कुछ समझ न सकी। अन्त में पता चला कि यह झगड़ा रुपये-पैसे को लेकर हुआ करता था। क्योंकि माताजी मेरे विवाह में अधिक रुपये खर्च करने का विरोध किया करती थीं और पिताजी को मेरे लिए ऐसा वर ढूंढ़ने का परामर्श देती थीं, जो साधारण स्थिति का हो और थोड़े तिलक-दहेज़ पर ही विवाह करने को राजी हो जाए।

मेरी सौतेली माता के नैहर का एक अधेड़ मनुष्य अक्सर हमारे घर आया करता था। माताजी उसे अपना भाई बताया करती थीं और न जाने क्यों उससे उनकी खूब बनती थी। उसके आने पर बड़ी तत्परता से उसकी आवभगत किया करती थीं। माताजी का धर्म-भाई होने के कारण मैं भी उसके सामने होती थी। सुनने में आया कि वह पुलिस का दारोगा है और बड़ा मालदार आदमी है।

एक दिन दाई की ज़बानी मालूम हुआ कि माताजी उसीके साथ मेरा विवाह कर देना चाहती हैं। पहले तो मुझे इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ।

परन्तु बाद में मालूम हुआ कि खबर सोलह आने सच थी। यद्यपि पिताजी इस बात पर राज़ी न थे, परन्तु माताजी के आदेश के विरुद्ध कुछ करना भी उनके लिए सम्भव न था।

मैंने यह हाल सुना तो मुझे बड़ा दुःख हुआ। क्योंकि मैं उसे फूटी आंख भी नहीं देखना चाहती थी। उसकी सूरत-शक्ल भी अच्छी न थी। चेहरे पर और बातचीत में उद्दण्डता भरी थी। परन्तु माताजी मेरे सामने उसके रूप-रंग और विद्या-बुद्धि की बड़ी प्रशंसा किया करती थी। मानो मेरे लिए उससे बढ़कर उपयुक्त वर संसार में दूसरा कोई था ही नहीं।

एक दिन उसी दाई की ज़बानी मालूम हुआ कि दारोगाजी के साथ मेरे विवाह की बातचीत पक्की हो गई। मेरे सिर पर मानो वज्रपात हो गया। कलेजा धड़कने लगा। मैं घण्टों तक छिपकर रोती रही। अन्त में कई दिनों के बाद मैंने अपनी बहिन को एक पत्र लिखा।मुझे विश्वास था कि बहिन कदापि इस विवाह का समर्थन न करेगी। परन्तु मालूम नहीं, वह पत्र मेरी बहिन को मिला ही नहीं।

क्योंकि उसका कोई उत्तर नहीं आया। परन्तु इस घटना के बाद से मेरी सौतेली मां मुझसे तनी-सी रहने लगी और समय-समय पर ताने देने लगी।

क-३