मुझे गिराकर हल्दी-तेल चढ़ाने की रस्म अदा की गई। इसी तरह एक दिन विवाह की रस्म भी अदा हो गई। मैंने 'गौर गनेश' को तोड़ डाला, पैरों की ठोकर से मंगल-घट फोड़ दिया और जब वर महोदय सिन्दूर-द-दान करने आए तो उन्हें ऐसा धक्का दिया कि बेचारे चारों खाने चित ज़मीन पर भहरा पड़े। जब मैं किसी तरह काबू में न आई, तो मेरी सौतेली मां मेरे हाथ-पैर बांधकर मुझे एक कोठरी में ढकेलकर किवाड़ बन्द करती हुई बोलीं -अब रोश्रो चाहे गाओ, जो होना था, वह हो गया।
मैं उस समय क्रोध, चिन्ता और ग्लानि से अधमरी-सी हो रही थी। कई दिनों तक भोजन आदि न करने के कारण मेरा शरीर अवसन्न हो गया था। मैं थोड़ी देर के बाद बेहोश हो गई । जब होश हुआ तब देखा बन्धन खुले हुए हैं।
घर में दिया जल रहा है और वर महोदय दरवाजे की सिटकिनी बन्द कर रहे हैं । मैं देखते ही बड़े जोरों से चीख उठी और वहां से निकल भागने के लिए दरवाजे की ओर लपकी, परन्तु उन्होंने बीच में मुझे पकड़कर ज़बर्दस्ती घसीटते ले जाकर पलंग पर लिटा दिया। मैं बहुतेरा चीखी-चिल्लाई, अपने आबरू की रक्षा के लिए कई जगह उन्हें दांतों से काट डाला। इस हाथा-पाई में मुझे भी चोटें आईं ; परन्तु मैंने उनकी मनोकामना पूरी न होने दी। इसके बाद उन्होंने माताजी को बुलाया, मैं उनके पैरों पर गिर पड़ी और बड़ी प्रारजू-मिन्नत की कि मुझे यहां से निकल जाने दो, परन्तु उन्होंने एक न सुनी, मैं फिर बलपूर्वक ज़मीन पर गिरा दी गई और मेरे हाथ-पैर रस्सी से बांध दिए गए। माताजी ने मेरे मुंह में कपड़ा लूंस दिया और मुझे वहीं छोड़ कमरे से बाहर चली गई।
इसके बाद क्या हुआ, उसका वर्णन करना मेरी जैसी एक वेश्या के लिए भी सम्भव नहीं है।
यह कहते-कहते फिर उसका चेहरा तमतमा उठा। आंखों से मानो क्रोध की चिनगारियां निकलने लगीं। बेचारे पण्डितजी उसकी यह हालत देखकर सहम गए।मैं भी बड़े पशोपेश में पड़ गया और बुढ़िया से फिर एक गिलास पानी देने का इशारा करके बोला--वस, अब रहने दीजिए। फिर कभी आपकी कहानी सुन लूंगा। इस समय ज़रा-सा लेट जाइए।
उसने एक लम्बी सांस खींचकर उत्तर दिया-आप घबराइए नहीं, मेरी तबियत ठीक है।