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पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/९४

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भाई की विदाई
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'पाना ही पड़ेगा।

'पाऊंगा वहिन!'

नायक हंस पड़ा, फिर रो पड़ा। उसने बालिका के पैर छुए और मंडलीसहित अन्धकार में डूब गया।

'दारोगाजी, अब आप निकल आइए, वे लोग चले गए।'

'भई, अच्छी तरह देख-भाल लो!'

'बेखटके निकल आइए।'

दारोगाजी ने निकलकर वर्दी झाड़ी और जूते के फीते कसते हुए बोले-इन साले जूतों ने आज मरवाया था।

कमालुद्दीन ने कहा-खैर, अब जाब्ते की कार्रवाई करनी चाहिए।

'जाब्ते की कार्रवाई कैसी?'

'दो सिपाहियों को गांव के पूरब की ओर जाकर फायर करने को कहिए। दो सिपाही पीछे से हवा में फायर करें। आप यहीं से तमंचा दागना शुरू कर दें। वर्दी फाड़ डालिए और सिपाहियों की वर्दियां भी चिथड़ा कर डालिए।' 'इसके क्या माने?'

'आखिर डाकुओं से मुठभेड़ भी क्या मामूली हुई?'

दारोगाजी इस भय की घड़ी में भी हंस पड़े। उन्होंने कहा-उस्ताद, तुम्हारी अक्ल को हम मान गए।

उन्होंने पिस्तौल ऊंचा करके चार-पांच फायर कर दिए। कमालुद्दीन ने मातादीन की पीठ पर हाथ मारकर कहा-देखते क्या हो, पूरव की ओर ही दौड़ जायो। हां, वर्दी को फाड़ दो। और दो-चार हवा में फायर कर दो। थोड़ी ही देर में बन्दूकों और पिस्तौलों की आवाज़ सुनकर गांव-भर में हलहल मच गई। दारोगाजी वर्दी फाड़े, नंगे सिर, कीचड़ में सने हुए दल-बलसहित लाला के घर पर आ धमके। साथ ही गांव के हजारों आदमी थे।

लाला नीचा सिर किए बाहर आए। दारोगाजी पलंग पर बैठ गए और बोले--रिपोर्ट लिखाओ लाला,आज जान हथेली पर करके डाकुओं का मुकाबिला किया गया। कहो क्या-क्या गया; क्या-क्या रहा।

लालाजी ने दबी ज़बान से कहा-हुजूर, आपकी दया से डाकू भाग गए। वे