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पृष्ठ:कांग्रेस-चरितावली.djvu/४२

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२४ कांग्रेम-धरितावाली। . यदरुद्दीन तप्पय जी ने फुगाग्र-युद्धि होने के कारण, उर्दू और फ़ारसी भाषा यहुत ही जल्द वम्बई के दादा मरयर के मदरसे में मीस ली। उर्दू श्रीर फ़ारसी पढ़ पुगने के याद, साप अगोजी भाषा सीखने के लिए "एलफिन्स्टन इन्स्टिटपूट" में भेजे गए । अंगरेज़ी भाषा के अच्छे ताता दो जाने के पश्चात प्राप के पिताने आपको फेवल १६ वर्ष की उमर में विलायत पढ़ने के लिए भेज दिया। इस उषित और उपयोगी काम कर ने के यदले में तम्पय जी भाई मियन की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। अपने बालकों के भायी फल्याण के निमित्त, स्नेह और माह को तिलांजली देकर केवल १६ वर्ष की उमर में इतनी दूर विलायत पढ़ने के लिये भेज देना कितने साहस का काम है । भारतयासी अपनी सन्तान को अपनी प्रांखों के सामने से दूर करना नहीं चाहते, स्वदेश में ही दूर पढ़ने के लिए नहीं भेजते, फिर विलायत गमन उनके लिए एक घटा काम है । इस देश में बहुत से ऐसे धनाढ्य हैं जो अपने लड़कों को विलायत भेज कर, उचित शिक्षा दिलवा सकते हैं; जिप्त से उनका और उनके देश दोनों का कल्याण है। परन्तु ऐसे उत्तम और ज़रूरी काम फरने का उन्हें साहस नहीं पड़ता ! वे झूठे स्नेह में इतने बद्ध हो रहे हैं कि उन्हें उस स्नेह के सामने अपने सन्तान का भावी सुख और देश का हित कुछ भी नहीं सूझ पड़ता। भारत के ग़रीब लोगों की सन्तान धनाभाव के कारण अन्यदेशों में जाकर उच्च शिता नहीं प्राप्त कर सकते, परन्तु जिनके पास धन है उनकी सन्तान माह के वश होकर कुछ भी नहीं लिख पढ़ सकती। माता पिता का अनुचित स्नेह ही सन्तान की भावी उन्नति और उच्च आशा, का नाश करता है। यही स्नेह भारत की तरक्की होने में बाधक हो रहा है। जापान की तरह अगर इस देश के लोग भी अपनी अपनी सन्तान को विदेश भेज कर हर एक प्रकार की उच्च शिक्षा दिलावें तो उनकी सन्तान को जरा जरा सी यात के लिए विदेशियों का मुह न ताकना पड़े। इस समय तो जापान की मिसाल हमारे सामने है । परन्तु उस समय जबकि भारत में विलकुल अंधेरा छाया हुआ था तय्यब जी ने अपने लड़कों को विलायत पढ़ने