पृष्ठ:कामना.djvu/१०१

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कामना
 


निकेतन देखकर पूर्ण वेग से धमनियो में दौड़ने लगता है। जहाँ चिन्ता विस्मृत होकर विश्राम करने लगती है। वही रमणी का तुम्हारा-रूप देखा था-और यह नहीं कह सकता कि मै झुक नहीं गया। परन्तु मैने देखा कि उस रूप मे पूर्ण चन्द्र के वैभव की चन्द्रिका-सी सबको नहला देने वाली उच्छृंखल वासना। वह अपार यौवन-राशि समुद्र के जल-स्तूप के समान समुन्नत-गर्व से ऊँची उसमें लहरियाँ चढ़ती थीं-गिरती थीं। वह जलराशि मेरे लिए रहस्यपूर्ण कुतूहल की प्रेरक थी। मैने विचारा कि यह प्यास बुझाने का मधुर स्रोत नहीं है, जो मल्लिका की मीठी छाँह में बहता है।

कामना-क्या यह सम्भव नहीं कि तुमने भूल की हो, उसे उजेले मे न देखा हो! अँधेरे मे अपनी वस्तु न पहचान सके हो?

सन्तोष-वह तमिस्रा न थी, और न तो अन्धकार था, हमारे प्रेम की गोधूली थी, संन्ध्या थी। जब वृक्षों की पत्तियाँ सोने लगती है, जब प्रकृति विश्राम करने का संकेत करती है। पवन रुक कर सन्ध्या-सुन्दरी के सीमन्त मे सूर्य का सिन्दूर की रेखा

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