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कामना
 

संतोष-बहन! इस गाँठ को भीतर धर दूँ, तो चलूँ। ( परिश्रम से थका हुआ संतोष बोझ उठाता है। गिर पड़ता है। उसके पैर में चोट आती है। करुणा उसे उठाकर भीतर ले जाती हे)

(एक ओर से वनलक्ष्मी दूसरी ओर से महत्त्वाकांक्षा का प्रवेश)

वनलक्ष्मी-देखो, तुम्हारी कर लेने की प्रवृत्ति ने नानो का सत्व हलका कर दिया, कृषक थकने लगे है। खेतो को सीचने की आवश्यकता हो गई है। उर्वरा पृथ्वी को भी कृत्रिम बनाया जाने लगा है।

महत्त्वाकांक्षा-विलास के लिए साधन कहाँ से आवेंगे? यह जंगलीपन! अकर्मण्य होकर प्रकृति की पराधीनता क्यो भोग करें। शक्ति है, फिर अभाव क्यों रह जाय?

वनलक्ष्मी-विलास की महत्त्वाकांक्षा। तुम्हारा कहीं अन्त भी है। कब तक और कहाँ तक तुम मानव-जाति को भगड़ते देखना चाहती हो?

महत्त्वाकांक्षा-प्रकृति अपनी सीमा क्यों नही बनाती। फूल-उनकी कोमलता और उनका सौरभ एक ही प्रकार का रहने से भी तो काम चल नाता।

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