पृष्ठ:कामायनी.djvu/१०८

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सोच रहे थे, "जीवन सुख है ? ना, यह विकट पहेली है,
भाग अरे मनु ! इंद्रजाल से कितनी व्यथा न झेली है ?
यह प्रभात की स्वर्ण किरन-सी झिलमिल चंचल-सी छाया,
श्रद्धा को दिखलाऊँ कैसे यह मुख या कलुषित काया ?

और शत्रु सब, ये कृतघ्न फिर इनका क्या विश्वास करूँ,
प्रतिहिंसा प्रतिशोध दबा कर मन ही मन चुपचाप मरूँ ।
श्रद्धा के रहते यह संभव नहीं कि कुछ कर पाऊँगा,
तो फिर शांति मिलेगी मुझको जहाँ, खोजता जाऊँगा।'

जगे सभी जब नव प्रभात में देखे तो मनु वहाँ नहीं,
'पिता कहाँ' कह खोज रहा सा यह कुमार अब शांत नहीं।
इड़ा आज अपने को सबसे अपराधी है समझ रही,
कामायनी मौन बैठी-सी अपने में ही उलझ रही।

96 / कामायनी