पृष्ठ:कामायनी.djvu/११०

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यह कैसा तेरा दुःख-दुसह ,
जो बाहर-भीतर देता दह ,
लेती ढीली-सी भरी सांस ,
जैसे होती जाती हताश।"

वह बोली--"नील गगन अपार ,
जिसमें अवनत घन सजल भार ,
आते जाते, सुख, दिशि, पल ,
शिशु-सा आता कर खेल अनिल ,
फिर झलमल सुंदर तारक दल ,
नभ रजनी के जुगुनू अविरल ,
यह विश्व अरे कितना उदार !
मेरा गृह रे उन्मुक्त-द्वार ।

यह लोचन-गोचर-सकल-लोक ,
संसृति के कल्पित हर्ष शोक ,
भावोदधि से किरनों के मग ,
स्वाती कन से बन भरते जग ,
उत्थान-पतनमय सतत सजग ,
झरने झरते आलिंगित नग ,
उलझन की मीठी रोक टोक ,
यह सब उसकी है नोक-झोंक ।

जग, जगता आँखें किये लाल ,
सोता ओढ़े तम-नींद-जाल ,
सुरधनु-सा अपना रंग बदल ,
मृति, संसृति, नति, उन्नति में ढल ,
अपनी सुषमा में यह झलमल ,
इस पर लिखता झरता उडुदल ,

98 / कामायनी