"वह अगला समतल जिस पर है देवदारु का कानन ,
घन अपनी प्याली भरते ले जिसके दल से हिमकन ।
हाँ, इसी ढालवें को जब बस सहज उतर जावें हम ,
फिर सम्मुख तीर्थ मिलेगा वह अति उज्ज्वल पावनतम ।"
वह इड़ा समीप पहुँच कर बोला उसको रुकने को ,
बालक था, मचल गया था कुछ और कथा सुनने को ।
वह अपलक लोचन अपने पादाग्र विलोकन करती ।
पथ-प्रदर्शिका-सी चलती धीरे-धीरे डग भरती ।
बोली, "हम जहाँ चले हैं वह है जगती का पावन--
साधना प्रदेश किसी का शीतल अति शांत तपोवन ।"
"कैसा ? क्यों शांत तपोवन ? विस्तृत क्यों नहीं बताती",
बालक ने कहा इड़ा से वह बोली कुछ सकुचाती--
"सुनती हूँ एक मनस्वी था वहाँ एक दिन आया ,
वह जगती की ज्वाला से अति-विकल रहा झुलसाया ।
उसकी वह जलन भयानक फैली गिरी अंचल में फिर ,
दावाग्नि प्रखर लपटों ने कर दिया सघन वन अस्थिर ।
थी अर्धांगिनी, उसी की जो उसे खोजती आयी ,
यह दशा देख, करुणा की--वर्षा दृग में भर लायी ।
वरदान बने फिर उसके आँसू, करते जग-मंगल ,
सब ताप शांत होकर, वन हो गया हरित, सुख-शीतल ।
गिरि-निर्झर चले उछलते छायी फिर से हरियाली ,
सूखे तरु कुछ मुसक्याये फूटी पल्लन में लाली ।
वे युगल वहीं अब बैठे संसृति की सेवा करते ,
संतोष और सुख देखकर सब की दुःख-ज्वाला हरते ।
है वहाँ महाहृद निर्मल जो मन की प्यास बुझाता ,
मानस उसको कहते हैं सुख पाता जो है जाता।"
कामायनी / 119